Wednesday, December 24, 2008
सुर्खी है अखबारों में
या तो रौनक बाज़ारों में ।
या सत्ता के गलियारों में ।
चेहरे होते जाते पीले
पर सुर्खी है अख़बारों में ।
जड़ा फ़र्श पर संगेमरमर
मगर दरारें दीवारों में ।
धरती पर काँटे,उनको क्या
जिनको उड़ना गुब्बारों में ।
चला 'लोक' से 'तंत्र' हमारा
क़ैद हो गया परिवारों में ।
अपना चेहरा लेकर क्या तुम
जा पाओगे दरबारों में ।
२२ नवम्बर १९९७
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Thursday, December 18, 2008
आप
यूँ तो चाँद सितारे आप ।
लेकिन नहीं हमारे आप ।
घर के भीतर भी डर लगता
जब से हैं रखवारे आप ।
हम तो सिकर दुपहरी झेलें
दिखते साँझ सकारे आप ।
कौन सहारा बने आपका
किसके बने सहारे आप ।
पानी गुज़र गया सर से है
बैठे रहे किनारे आप ।
२ फरवरी २००१
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
You
Like the moon you shine
But you are not mine
It is scary even inside the home
Ever since guard you have become
We bear the torture of high noon
You are cool as the evening moon
Who can be you support?
Have YOU been anyone's support?
Above (our) heads, the water flows
But you sit pretty on the shores
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Wednesday, December 17, 2008
जाने कब
ज़िंदगी चुटकुला नहीं यारो
कैसे पल में बयान हो जाए ।
आज डरता है वो हवाओं से
जिसकी बेटी जवान हो जाए ।
बच्चे छोटे हैं लड़खड़ाते हैं
कैसे पंछी उड़ान को जाए ।
रिश्ते बहते नहीं जब खूँ में
लाख ऊँचा मकान हो जाए ।
अपनी बातें भी कोई बातें हैं
आपका ही बखान हो जाए ।
अक्ल मज़हब के गिरवी मत रखना
जाने कब तालिबान हो जाए ।
३० अक्टूबर २००२
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Life is not a joke my dear friend
How can I describe it in a moment
Even the winds get him scared
Whose daughter is coming of age
The chicks are small and wobbly
How can the bird go for foraging
When relations don't warm the blood
(then) let the house be multi-storied
(what difference does it make, if warmth of relations is not there?)
Nothing about me for the conversation
Let us just have your own glorification!
Don't pawn your minds to religion
Who knows when it may turn 'talibaan'
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
कैसे पल में बयान हो जाए ।
आज डरता है वो हवाओं से
जिसकी बेटी जवान हो जाए ।
बच्चे छोटे हैं लड़खड़ाते हैं
कैसे पंछी उड़ान को जाए ।
रिश्ते बहते नहीं जब खूँ में
लाख ऊँचा मकान हो जाए ।
अपनी बातें भी कोई बातें हैं
आपका ही बखान हो जाए ।
अक्ल मज़हब के गिरवी मत रखना
जाने कब तालिबान हो जाए ।
३० अक्टूबर २००२
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Life is not a joke my dear friend
How can I describe it in a moment
Even the winds get him scared
Whose daughter is coming of age
The chicks are small and wobbly
How can the bird go for foraging
When relations don't warm the blood
(then) let the house be multi-storied
(what difference does it make, if warmth of relations is not there?)
Nothing about me for the conversation
Let us just have your own glorification!
Don't pawn your minds to religion
Who knows when it may turn 'talibaan'
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
religion,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Monday, December 8, 2008
सबकी ख़बर
इतनी संकरी डगर है मियाँ |
दो का मुश्किल गुज़र है मियां |
एक हो जायँ दिल-जान से
काफ़ी लम्बी डगर है मियाँ
जाम दो तो सलीके से दो
वरना म 'अ क्या, ज़हर है मियाँ |
यूँ तो कहने को हर चीज़ है
पर कहीं कुछ कसर है मियाँ |
चुप भली है भरम के लिए
वरना सबकी ख़बर है मियाँ |
लोग हर हाल में मस्त हैं
इक हमीं पर कहर है मियाँ |
सिर्फ़ वो ही नहीं सुन रहे
शे'र जिनके लिए है मियाँ |
३ अगस्त १९९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Sunday, December 7, 2008
तन का फैलाव
उनसे अगर लगाव न होता।
इतना अधिक तनाव न होता।
ओंठों पर सच ना लाते तो
सर पर यूँ पथराव न होता।
आपस में अनजाने रहते
घर में अगर अलाव न होता।
उनको पाना कठिन नहीं था
मन में अगर दुराव न होता।
शहरी होना क्या मुश्किल था
गँवई अगर स्वभाव न होता।
मन की दुनिया भी पा जाते
तन का यूँ फैलाव न होता ।
५ अप्रेल २००१
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
physical (material) expanse
had it not been for attachment
won't need any stress management
had i not used so truthful tones
won't have been pelted with stones
lived like strangers in the same space
had it not been for the cozy fireplace
it wasn't difficult to win their hearts
if it wasn't for hateful inner darks
it is easy to be an urbanite mature
if it wasn't for the rustic nature
easy to have peaceful spiritual trance
had it not been for the physical (material) expanse
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
इतना अधिक तनाव न होता।
ओंठों पर सच ना लाते तो
सर पर यूँ पथराव न होता।
आपस में अनजाने रहते
घर में अगर अलाव न होता।
उनको पाना कठिन नहीं था
मन में अगर दुराव न होता।
शहरी होना क्या मुश्किल था
गँवई अगर स्वभाव न होता।
मन की दुनिया भी पा जाते
तन का यूँ फैलाव न होता ।
५ अप्रेल २००१
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
physical (material) expanse
had it not been for attachment
won't need any stress management
had i not used so truthful tones
won't have been pelted with stones
lived like strangers in the same space
had it not been for the cozy fireplace
it wasn't difficult to win their hearts
if it wasn't for hateful inner darks
it is easy to be an urbanite mature
if it wasn't for the rustic nature
easy to have peaceful spiritual trance
had it not been for the physical (material) expanse
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Saturday, December 6, 2008
ढलवाँ रोशनदान
घर लेकर अरमानों में
रहते रहे मकानों में |
रोटी पानी था लेकिन
धूप न थी दालानों में |
उनको यादों में रखलो
जो न छपे दीवानों में |
महलों में रातें भी रोशन
दिन भी रात खदानों में |
क्या बतलाएँ कैसे आए
चलकर रेगिस्तानों में |
चिड़िया के तिनके न रुके
ढलवाँ रोशनदानों में |
हमीं शमां में रोशन थे
हमीं जले परवानों में |
३ मार्च १९९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Thursday, December 4, 2008
उतना जलना दीपक को
हर हालत में साथ चलें |
ले हाथों में हाथ चलें |
ऎसी कोई बात बने
जिसकी सदियों बात चले|
उतना जलना दीपक को
जितनी लम्बी रात चले|
बंद न हो संवाद कभी
चाहे लाख विवाद चले|
कभी नहीं तन्हा थे हम
साथ तुम्हारी याद चले|
१६ अप्रेल २०००
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Wednesday, December 3, 2008
लड़कियाँ
फूल तितली का उपमान हैं लड़कियाँ ।
एक में दो-दो उपमान हैं लड़कियाँ ।
जिसने देखा वही बिद्ध होकर गिरा
एक उड़ता हुआ बाण हैं लड़कियाँ ।
सास भी है बहू औ' बहू सास है
ख़ुद ही ख़ुद से परेशान हैं लड़कियाँ ।
तीर भी है वही औ' वही बाण है
ख़ुद पे ख़ुद का ही संधान हैं लड़कियाँ ।
बनती बेटी, बहिन और प्रेयसी कभी
नित नया एक अरमान हैं लड़कियाँ ।
देखती हैं शीशा वे हरेक कोण से
ख़ुद में ही एक घमासान हैं लड़कियाँ ।
इनको रखिये बचा कर के हर हाल में
आप हम सब का अरमान हैं लड़कियाँ ।
२२ जून २००१
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
urban life,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Tuesday, December 2, 2008
इल्जाम
आँधी और तूफ़ान आगये
चिर परिचित मेहमान आगये |
घुटन, अँधेरा, दर्द, उदासी
जीने के सामान आगये |
उनका नाम क्या लिया, हमपर
सब के सब इल्ज़ाम आगये |
उनके घर के हर रस्ते में
छोटे बड़े मकान आगये |
दो गज़ का अरमान किया तो
कुर्की के फरमान आ गए |
उन्हें मनाना आसाँ था पर
मन में गरब गुमान आ गए
८ जून १९९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Monday, December 1, 2008
मन-कदलीवन
वो शायद ग़मज़दा बहुत है ।
हँसता रहता सदा बहुत है ।
दर्द सुनाया उन्हें उमर भर
फिर भी बाक़ी रहा बहुत है ।
जो अच्छा हो वो रख लेना
वैसे हमने कहा बहुत है ।
तार-तार है मन कदलीवन
इन गलियों में हवा बहुत है ।
उनसे मिलकर क्यों भ्रम तोडें
जिनके बारे सुना बहुत है ।
हमें पता है अपनी किस्मत
वैसे उनकी दुआ बहुत है ।
२२ जून २००१
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Trodden hearts (like a banana field)
Perhaps he is very sorrowful
He is always laughing a lot
Told them my woes all life long
Still to tell there is a lot
Keep only whatever is good
Though I have said a lot
Heart is shredded like a banana field
In these alleys, wind blows a lot
Why to meet and break illusions
About whom we have heard a lot
We know our destiny even though
Their kind blessings are a lot
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Sunday, November 30, 2008
तेरे ही सपने
हम जिन जिन से लड़ने निकले|
वे सब के सब अपने निकले|
वो तो मन में ही बैठा था
जिसकी माला जपने निकले|
मेरी आँखों ने जो देखे
वे तेरे ही सपने निकले |
बस वे ही जिंदा रह पाये
कफन बाँध जो मरने निकले|
अणु परमाणु सभी तो घूमे
फिर तुम कहाँ ठहरने निकले |
जीवन में ही मौत छुपी है
जाने किससे बचने निकले|
छोटे छोटे से दुःख सुख ही
हम कविता में रचने निकले|
२५ अप्रेल २०००
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
religion,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Saturday, November 29, 2008
अन्न- ब्रह्म
अन्न बजे और अन्न बजावै ।
अन्न ही सारे नाच दिखावै ।
पलना, लोरी कहने भर को
अन्न ही सोवै, अन्न सुलावै ।
माया की बदनामी झूठी
अन्न ही दुनिया को भरमावै ।
कम्प्यूटर टी.वी.दिखलाकर
काहे भूखों को भरमावै ।
अन्न मिले तो गाना सूझे
अन्न बिना कुछ भी ना भावे ।
अन्न बिना सब शोर-शराबा
अन्न ब्रह्म ही अनहद गावै ।
१८ फ़रवरी २००१
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Food is God
Food sings, food is making you sing
Food is on which the show is running
The crib, lullaby are just name deep
Food sleeps, food makes you sleep
Maya wrongly gets the criticism
Food is what causes the illusion
Showing the computer or the TV
Why do you mislead the hungry
After food, you think of music
Without food, you just feel sick
Without food all is cacophony
Food makes music without touching
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Friday, November 28, 2008
बाजीगरी
क़ैद में निर्दोष अपराधी बरी है |
आपके इंसाफ़ की बाजीगरी है |
तीर उनके चल रहे हैं हर तरफ़ से
पास अपने बस पुरानी मसहरी है |
द्वार कोई खुल न पाता आदमी से
और रोशन आपकी बारादरी है |
दीखता जो द्वार ,है दीवार वो तो
यह महल श्रीमान की कारीगरी है |
रोशनी पर हो गए इल्ज़ाम आयद
यह अँधेरों की पुरानी मुखबरी है |
दावते-इफ्तार वो भी आपके संग
यह हमारे साथ कैसी मसखरी है|
२२ फरवरी १९९६
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
religion,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Thursday, November 27, 2008
घोडा और लगाम
क्या रखा है काम में ।
जो कुछ है सो नाम में ।
भूख और सूखा बैठे हैं
खेत और खलिहान में ।
बल्ब जलें, फ़व्वारे चलते
नेताजी के लान में ।
मेहनत करने वाले भूखे
चुपड़ी मिले हराम में ।
असली कामों में कंजूसी
खर्चा झूठी शान में ।
नहीं पाँच पल जनता आती
कभी किसीके ध्यान में
पूरे पाँच बरस ही उनके
पाँच साल के प्लान में ।
जनता से उनका रिश्ता जो
घोड़े और लगाम में ।
हज सब्सीडी, गोली मिलती
अमरनाथ के धाम में ।
सुरा, सुन्दरी, भजन, प्रसादी
सब कुछ है दूकान में ।
१७ फ़रवरी २००१
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Whip and Horse
In work there is no fame?
It is just all in the name!
Only famines and droughts
In fields and warehouses
Lawn sprinklers and fancy lights
Adorn the lushes of the elites.
Hard workers only get hunger
Corrput ones have it buttered
In real matters, very stingy
In showing off, all splurgy
Not even for five minutes
About People, do they think
Only the five years are
In the five year plans (Are not farsighted)
Their relation with the mass
That of the whip and the horse
Hajj subsidy! Bullets on the path
In the pilgrimage of Amarnath!
Wine, women, prayer, holy offering
Everything in one place for shopping!
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
globalization,
hindi,
poem,
satire,
urban life,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Wednesday, November 26, 2008
वातानुकूलन
आपका पूरा प्रदर्शन हो गया है |
हर जगह पर दूरदर्शन हो गया है |
अब न बदलेंगे यहाँ मौसम कभी
मुल्क का वातालूकुलन हो गया है |
खिलखिलाती कुर्सियाँ आयोजनों में
लोकमत निर्बल निवेदन हो गया है |
वंश बढ़ता जा रहा है लम्पटों का
सत्य का जबरन नियोजन हो गया है |
आइये अब तो करें बातें हृदय की
देह का सम्पूर्ण शोषण हो गया है |
कांपती है एक बूढी झोंपडी
आज मलयानिल प्रभंजन हो गया है |
६-मार्च-१९७९
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
emergency,
family planning,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Tuesday, November 25, 2008
एक अनजानी सदी
एक तूफ़ानी नदी है, और हम ।
एक अनजानी सदी है, और हम ।
अब अकेलापन कहाँ तुम ही कहो
साथ में यह बेखुदी है, और हम ।
हों नहीं, तो भी रहेंगे हम सदा
यह यकीं सौ फीसदी है, और हम ।
देखकर खाता बही अब क्या करें
जमा में केवल बदी है, और हम ।
शांत है तूफ़ान, मौसम ठीक पर
नाव पत्थर से लदी है, और हम ।
२ जनवरी २००१
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Monday, November 24, 2008
उल्टी व्याकरण
फिर कोई खिचड़ी पकाई जा रही है |
व्याकरण उल्टी पढ़ाई जा रही है |
कैद हैं सारे उजाले फाइलों में
वक्त पर तोहमत लगाई जा रही है |
पहले छपवा लो, सुनाना बाद में
मुल्क में कविता चुराई जा रही है |
हो उठे हैं सभ्य-गण सहसा रसिक
स्यात् निर्बल की लुगाई जा रही है |
सादगी देखें सियासत की हुज़ूर
सदन में गज़लें सुने जा रही हैं |
९-जून-१९८१
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Sunday, November 23, 2008
वे ही नावें
सबका खस्ता हाल वही ।
वो ही रोटी, दाल वही ।
जिससे आँख चुराते थे
पूछे रोज सवाल वही ।
बस मछुवारे बदले हैं
वो ही मछली, जाल वही ।
उनके घर हलवा पूड़ी
अपने यहाँ अकाल वही ।
सभी परिंदे सहमे-सहमे
वैसे बरगद, डाल वही ।
तूफाँ कल से ज़्यादा है
वे ही नावें, पाल वही ।
३ दिसम्बर २०००
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Same boats
everyone is doing bad, same old
same old bread, same old daal
whom we try to avoid
(s/he) asks questions daily
just the fishermen have changed
same fish, same fishing net
big feast at their place
at ours, same old famine
all birds are scared
same banyan tree, same branches
storms are worse than yesterday
same old boats, same old sails
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Saturday, November 22, 2008
बाबू
ख़त लिख दे साँवरिया के नाम बाबू |
वो कहते थे कर देंगे काम बाबू |
कोई भी शासन हो 'लाला' फलेंगे
इनका पक्का है सब इंतज़ाम बाबू |
जो राजा थे, राजा हैं, राजा रहेंगे
और अपने को रहना अवाम बाबू |
हमको तो नियमों में बाँधोगे लेकिन
कौन नेता को डाले लगाम बाबू |
वे महलों में रहकर भी मौसम से डरते
नींद अपनी क्यों जाने हराम बाबू |
कहते हैं 'जनता' अब दिल्ली में रहती
मुझे तू ही बता मेरा नम बाबू |
८-दिसम्बर-१९७५
बतर्ज़ - ख़त लिख दे सांवरिया के नाम बाबू - फ़िल्म आए दिन बहार के, आशा भोंसले
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
parody,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Friday, November 21, 2008
संवाद
इधर उधर चहरे ही चहरे।
अन्दर छिछले,बाहर गहरे।
तरह तरह की दौड़ लगाते
लेकिन एक जगह पर ठहरे।
दुहरी हुई कमर जनता की
झंडा ऊँचा-ऊंचा फहरे।
सदियों से संवाद चल रहा
श्रोता गूंगे,वक्ता बहरे।
खुशबू को कैसे बाँधोगे
फूलों पर बैठा दो पहरे।
९ नवम्बर २०००
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Dialogue
faces all over, here and there
inside shallow, outside deeper
they are all over the space
but never move from their place
people are becoming hunchbacked
flying ever higher is the flag
dialogue is going on for centuries
audience is dumb, speakers deaf
how to restrain the fragrance
put the flowers under arrest.
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Thursday, November 20, 2008
दुनिया इतनी बुरी नहीं है
दो बातें दो पल कर देखो |
साथ हमारे चल कर देखो |
दुनिया इतनी बुरी नहीं है
ख़ुद से ज़रा निकल कर देखो |
जीवन का मतलब समझोगे
किसी लक्ष्य में ढल कर देखो |
जलने में भी बड़ा मज़ा है
सूरज जैसे जल कर देखो |
धरती-अम्बर का रिश्ता है
बादल के संग गलकर देखो |
वो रूठे हैं मन जायेंगे
तुम ही तनिक पहल कर देखो |
१८-दिसम्बर-१९९४
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Wednesday, November 19, 2008
ख़ुद से ही हाथापाई
जैसे तैसे बात बनाई।
लेकिन बात कहां बन पाई।
इक लम्हे का कर्जा जिसकी
सारी उमर चली भरपाई।
अपना दर्द बता औरों को
हम करवा बैठे रुसवाई।
उनके खाते चहल पहल है
अपने हिस्से में तनहाई।
कैसा दर्शन,कैसा चिंतन
बस ख़ुद से ही हाथापाई।
६ अकतूबर २०००
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Tuesday, November 18, 2008
पानी हर पत्थर में है
सूरज रोज़ सफ़र में है |
फ़िर तू ही क्यों घर में है ?
अपने बाज़ू तोलो तो
पानी हर पत्थर में है |
वो परदे के अन्दर हैं
लेकिन मेरी नज़र में हैं |
नहीं लगे जनता के सुर
लेकिन तंत्र बहर में है |
जो गलियों में ढूँढ रहे
क़ातिल उनके घर में है |
पाल उठा दो नावों के
कुछ संकेत लहर में है |
थकी अमीना राह तके
हामिद* मगर शहर में है |
३-जुलाई-१९९४
* मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ईदगाह का मुख्य पात्र जो ईद के मेले से खिलौनों की बजाय अपनी दादी के लिए चिमटा लाता है ताकि उसका हाथ ना जले
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
premchand,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Saturday, November 15, 2008
सभी कुछ प्यार में
ज़हर फैला हो जहाँ परिवेश में |
किस तरह कोई जिए उस देश में |
जिंदगी तुमसे शिकायत है यही
मौत आती है तुम्हारे वेश में |
यातना की बात मुझसे मत करो
सत्य कह दूँगा कहीं आवेश में |
कर रहे हैं वे सभी कुछ प्यार में
राम जाने क्या करेंगे द्वेष में |
भाज्य में ही शून्य जब रक्खा गया
सोच लो फिर क्या बचेगा शेष में
२५ फरवरी १९९६
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
All in love
Where poison is in the atmosphere
How does one live in there?
Life, only complain with you is that
Death comes in your disguise |
Don't talk about the tortures to me
I might say the truth in provocation |
They are doing this 'all in love'
God knows what they will do in hate |
When the divisor itself is zero
What is left in the quotient ?
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Friday, November 14, 2008
आग-फूस का रिश्ता
कब तक यह ठहराव जियेंगे |
अब तो एक बहाव जियेंगे |
जान बचाती घूमे दुनिया
मजनू तो पथराव जियेंगे |
बंद अँधेरे कमरों में भी
अम्बर का फैलाव जियेंगे |
चाहे मुल्क भाड़ में जाए
वे डंकल प्रस्ताव जियेंगे | *
शब्दों के सीमित अर्थों में
हम तो मन के भाव जियेंगे |
तूफानों वाले मौसम में
कागज़ वाली नाव जियेंगे |
आग-फूस का रिश्ता उनसे
पर हम यहीं तनाव जियेंगे |
०१-जनवरी-१९९५
* World Trade Organization का डंकल प्रस्ताव जिसमें प्रोसेस की बजाय प्रोडक्ट पेटेंट किया जाना प्रस्तावित किया गया |
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
globalization,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Wednesday, November 12, 2008
सिर्फ़ प्रयास
जब तक तेरे पास रहे |
एक सुखद एहसास रहे |
मुस्काते ही आँसू आए
महफ़िल में उपहास रहे |
मन में अम्बर का सपना ले
पैर तले की घास रहे |
जब-जब हँसने का मौसम था
तब-तब और उदास रहे |
माँ कहती थी राजा बेटा
मगर सदा वनवास रहे |
पूरण काम हुए होंगे वे
हम तो सिर्फ़ प्रयास रहे |
८-जनवरी-१९९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Monday, November 10, 2008
लोग
रोज़ शहर में आते लोग |
लेकिन लौट न पाते लोग |
यहाँ किसे सुनने की फुरसत
किसको हाल सुनाते लोग |
बात करो तो चुप हो जाते
बिना बात चिल्लाते लोग |
छूट गए सब संगी साथी
ख़ुद से ही बतियाते लोग |
वक्त मिले तो रोते धोते
कोई गीत न गाते लोग |
सपनों की ताबीर खोजते
ख़ुद सपना हो जाते लोग|
जब भी ढूँढा मुझको अपने
अन्दर ही मिल जाते लोग |
२३ नवम्बर ९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
migration,
poem,
satire,
urban life,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Sunday, November 9, 2008
राम धुन - आजादी पाये हुए हमको बरस पचास
(आजादी की स्वर्ण जयन्ती की पूर्व संध्या पर इंडिया गेट लेसर किरणों की रोशनी में भीगता रहा- एक समाचार १४ अगस्त १९९७)
आजादी पाये हुए हमको बरस पचास ।
टूटे सारे स्वप्न औ' जनमन हुआ उदास ।
जनमन हुआ उदास,पाँच सौ घोटाले हैं ।
उजले कपड़े वालों के धंधे काले हैं ।
कह जोशी कविराय असह दुःख-भार हो गया ।
फिर भी मुश्किल प्रभु तेरा अवतार हो गया ।।
लोकतंत्र से लुप्त है लोक रूप भगवान ।
कण-कण पर हावी हुआ तंत्र रूप शैतान ।
तंत्र रूप शैतान, दुःखी भेड़ें बेचारी ।
कोई भी हो तंत्र गई है खाल उतारी ।
कह जोशी कविराय ठण्ड से कांपें थर-थर ।
कब लोगे अवतार धरा पर हे परमेश्वर ।।
होरी सोता गाँव में अब भी आधे पेट ।
भीगे लेसर किरण में मगर इंडिया गेट ।
मगर इंडिया गेट, ओढ़ करके बरसाती ।
पुलिस फोर्स के बीच रईसी दौड़ लगाती ।
कह जोशी कविराय बाढ़ में डूबे जनता ।
बहे मवेशी बच्चे, कोई बात न सुनता ।।
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
(On the eve of the Golden Jubilee of India's Independence day, India Gate was immersed in laser show - A news, 14 August 1997)
it has been 50 years since independence |
all dreams are broken and people are sad |
people are sad, with five hundred scandals |
people in white clothes do black dealings |
says joshi kavi, weight of sorrow is unbearable |
to take another avatar, o lord, why are you unable ||
from 'democracy', is missing the 'demo-' god |
everywhere is strong, the '-cracy' demon |
the '-cracy' demon, the sheep are all scared |
no matter what '-cracy', they will be sheared |
says joshi kavi, shivering in bitter cold |
when will you take avatar on the earth, o lord ||
'Hori' still sleeps, half-hungry in the village |
but india gate is, immersed in laser rays|
immersed in laser rays, covered in raincoat |
protected by police, the rich swish by |
says joshi kavi, people drown in floods |
livestock, kids are swept away, but who cares ||
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - raam dhun,
globalization,
hindi,
poem,
urban life,
कुण्डलिया,
पुस्तक - राम धुन
Saturday, November 8, 2008
क्या पता उनको
ढूँढते हैं वे मनोरंजन ख़बर में।
क्या पता उनको घुटन कितनी क़बर में ।
सिर्फ़ पानी ही नहीं मिलता फ़सल को
लाश भी तिरती मिली अक्सर नहर में ।
बहुत भारी पड़ रहा हर एक लम्हा
चल रहा है ठीक सब उनकी नज़र में ।
हम स्वयं ही मंज़िलों तक पहुँच जाते
रहनुमाँ 'गर कम मिले होते सफ़र में ।
गाँव से उम्मीद लेकर तो चला था
खो गया पर आदमी आकर शहर में ।
ज़हर पीने से हमें इंकार कब था
ज़हर की तासीर तो होती ज़हर में ।
१६ नवम्बर १९९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
migration,
poem,
satire,
urban life,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Thursday, November 6, 2008
घर ,घर है
कहने को क़तरा भर है ।
लेकिन एक समंदर है ।
मैं तो उसके अन्दर हूँ
क्या वो मेरे अन्दर है ।
जितना हमें डराता जो
उसको उतना ही डर है ।
राजमहल हो या छप्पर
कैसा भी हो घर घर है ।
बारिश धूप नहीं रुकते
कहने को छत सर पर है ।
१७अगस्त२०००
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Home is Home
It seems just a drop
Hides the whole ocean
I am in It/Him
Is It/He in me?
Those who are scare other
Are scared themselves first
Whether palace or hut
Home is sweet home
Rain or scorching sun don't stop
To say, there indeed is the roof
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
पुस्तक - बेगाने मौसम
सरकार! तुम्हारे हाथों में
केवल उधार है खातों में, कब अन्न पड़ा इन आंतों में,
था एक वोट जो सौंप दिया, सरकार! तुम्हारे हाथों में |
साबुन, तेल, लिपस्टिक लो, खाने की चीजें पौष्टिक लो,
अपनी सारी तनख्वाह और घरबार तुम्हारे हाथों में |
चाहे जितना लूटो-नोंचो, जब प्राफिट है तो क्यों सोचो
सब चीजों का उत्पादन और व्यापर तुम्हारे हाथों में |
चाहो तो पत्ता साफ़ करो या फिर हमको माफ़ करो
अब अपनी तो गर्दन और तलवार तुम्हारे हाथों में |
चाहे दो डुबो इशारे पर अथवा ले चलो किनारे पर
अब जनता की तो नैया और पतवार तुम्हारे हाथों में |
चाहे छोटा, खुशहाल करो अथवा वीभत्स, विशाल करो
एकाध करो या दस-बारह, परिवार तुम्हारे हाथों में |
५-१०-१९७३
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Tuesday, November 4, 2008
पूरी ख़बर है हमको
दो चार तिनके लेकर, तूफाँ के सामने हैं
वैसे क़यामातों की, पूरी ख़बर है हमको |
मुख में है राम लेकिन, तीखी छुरी बगल में
ऊंची सियासतों की, पूरी ख़बर है हमको |
हम जैसा जी रहे हैं, वैसाही लिख रहे हैं
ताज़ी रवायतों की, पूरी ख़बर है हमको |
हम ही तो हैं मुहाफिज़, क़ौमी अमानतों के
उनकी खयानतों की, पूरी ख़बर है हमको |
कितना कठिन समय है, यह तुम भी जानते हो
रस्मी इनायतों की, पूरी ख़बर है हमको |
हो कौन किसका दुश्मन, रहबर ही तय करेंगे
ज़ाती अदावतों की, पूरी ख़बर है हमको |
४ जनवरी १९९६
* रवायत - रवैया, रिवाज़ (ways, style, customs, mannerism) | मुहाफिज़ - रक्षक (protector)
खयानत - धोखा | अदावत - दुश्मनी (animosity)
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
communalism,
ghazal,
globalization,
hindi,
poem,
religion,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Monday, November 3, 2008
प्रश्न
बचकर मेरी नज़र से निकले
तो क्यूँ आप इधर से निकले
गाँव समेटा शहर आगये
जाएँ कहाँ शहर से निकले
प्रश्न उठ रहे जब अन्दर से
कैसे हल बाहर से निकले
शाम ढले थककर घर लौटे
कहाँ रुकें जो घर से निकले
वे तो मन में कहीं नहीं थे
जो संकेत ख़बर से निकले
जात पाँत में भटक जायेंगे
'गर मस्जिद -मन्दिर से निकले
२५-५-९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी प्रकाशित या प्रकाशनाधीन
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
religion,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Sunday, November 2, 2008
उनके ख्वाब में
ना हम किसी हिसाब में हैं
ना हम किसी किताब में हैं
लेकिन सदा रहेंगे हम
हम तो उनके ख़्वाब में हैं
हमको जलवों से क्या लेना
हम तो छुपे हिज़ाब में हैं
अपनी शोक सभा में आने
वाले सभी नक़ाब में हैं
सत्ता के दस्तरख्वानो में
हड्डी हमीं कबाब में हैं
क्या बाँचें ख़त हमें पता है
जो कुछ लिखा ज़वाब में है
१७ अगस्त ९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
In their dreams
We are not in any calculations
We are not in any books
But we will remain
For we are in their dreams
What concern we have with beauty
We have to live under veil
At our funeral gathering
Everyone is wearing masks
In the feasts of the powerful
We are the bone in the kebob
Why to read the letter
We already know the reply
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी प्रकाशित या प्रकाशनाधीन
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Saturday, November 1, 2008
मुक्त व्यापार
सारा खेल उधार हो गया
घर भारत सरकार हो गया
उन्हें मुनाफ़ा हमको घाटा
यह कैसा व्यापार हो गया
नगरी में अंधेर नहीं है
क्यूँ चौपट दरबार हो गया
बंधुआ है मज़दूर अभी तक
मगर मुक्त व्यापार हो गया
पाप बढ़ गए बहुत धरा पर
पर मुश्किल अवतार हो गया
१-फरवरी-१९९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Free Economy
The whole game is on credit
Home economy is like the government (deficit)
They have profit, we have loss
What kind of business is this?
The labourer is bonded
But the market/economy is free
Lot of sins on this earth
But avatar (of vishnu) has become difficult
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी प्रकाशित या प्रकाशनाधीन
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
globalization,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Friday, October 31, 2008
अँधियारों के यार उजाले
अँधियारों के यार उजाले |
हैं कितने मक्कार उजाले |
बार बार आँखें चुंधिया कर
खो जाते हुशियार उजाले |
चौबारों छज्जों पर बैठे
करते हैं सिंगार उजाले |
'होरी' की झुग्गी में झांके *
इतने कहाँ उदार उजाले |
कल थोडा सकुचा कर करते
काले कारोबार उजाले |
बीच सड़क में लगा रहे हैं
आज 'मुक्त बाज़ार' उजाले |
जो जलते हैं वे पाते हैं
मिलते नहीं उधार उजाले |
हम नादाँ थे तुमसे मांगे
ए मेरी सरकार! उजाले |
२-फरवरी-१९९५
* मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'गोदान' का नायक जो उम्र भर गरीबी में ही जीता है और गरीबी में ही मर जाता है | भारत के बहुमत का प्रतीक होरी अंधेरे में ही जीवन बिता देता है |
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation (sans rhyming)-
Lights - buddies of darkness:
buddies of darkness, these lights |
how shrewd are they, these lights |
blinding the eyes again and again
then they hide away, these clever lights |
on terrace, verandah and roof-tops
they makeup and show off, these lights |
to peek in Hori's hut
not so merciful, are these lights |
yesterday these lights, had some, hesitation
in doing black market |
today right in the middle of the road
markets 'open' by lights |
those who burn (sacrifice) will get it
you dont get for rent, these lights |
i must be naive, that i am asking you
some light, o my govt!
Light, here is the symbol of progress, freedom, prosperity, in post Independent India. The haves.
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Thursday, October 30, 2008
इक पत्थर सा कुछ
खिड़कियाँ, दरवाज़े, छत कुछ भी नहीं |
यह हमारे घर सा कुछ रखा हुआ है |
आदमी से आदमी मिलता है पर
बीच में इक डर सा कुछ रखा हुआ है |
गीत बनने की प्रतीक्षा में युगों से
कंठ में इक स्वर सा कुछ रखा हुआ है |
शख्सियत का तो पता कुछ भी नहीं
द्वार पे नंबर सा कुछ रखा हुआ है |
हाँ में ही इसको हिलाना है अगर
देह पर क्यूँ सर सा कुछ रखा हुआ है |
बिजलियाँ कड़के, कभी सूरज तपे
सर पे इक अम्बर सा कुछ रखा हुआ है |
ज़िंदगी बीती है जिसको तोलते
दिल पे इक पत्थर सा कुछ रखा हुआ है |
९ फरवरी १९९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Something like a stone:
windows, doors, roof - nothing is here |
here is something like my house |
people meet people but
there is a something like a fear in between |
waiting for eons to be a song
there is something like a voice/note in my throat |
no idea about the personality
there is something like a number on the door |
if it has to nod only in "yes"
why is there something like a head on my body?
lightening flashes or scorching sun
yet, there is something like a sky on my head |
weighing it, life has spent away
there is something like a stone on my chest|
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
यह हमारे घर सा कुछ रखा हुआ है |
आदमी से आदमी मिलता है पर
बीच में इक डर सा कुछ रखा हुआ है |
गीत बनने की प्रतीक्षा में युगों से
कंठ में इक स्वर सा कुछ रखा हुआ है |
शख्सियत का तो पता कुछ भी नहीं
द्वार पे नंबर सा कुछ रखा हुआ है |
हाँ में ही इसको हिलाना है अगर
देह पर क्यूँ सर सा कुछ रखा हुआ है |
बिजलियाँ कड़के, कभी सूरज तपे
सर पे इक अम्बर सा कुछ रखा हुआ है |
ज़िंदगी बीती है जिसको तोलते
दिल पे इक पत्थर सा कुछ रखा हुआ है |
९ फरवरी १९९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Something like a stone:
windows, doors, roof - nothing is here |
here is something like my house |
people meet people but
there is a something like a fear in between |
waiting for eons to be a song
there is something like a voice/note in my throat |
no idea about the personality
there is something like a number on the door |
if it has to nod only in "yes"
why is there something like a head on my body?
lightening flashes or scorching sun
yet, there is something like a sky on my head |
weighing it, life has spent away
there is something like a stone on my chest|
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
चलो चलें इंसानों में
क्या रुकना बुतखानों में |
चलो चलें इंसानों में |
शमां देखती जिनका रस्ता
हम हैं उन परवानों में |
उनसे आँख मिलाने वाले
हम ही थे दीवानों में |
बस दो-चार सफ़ीने निकले
चलने को तूफानों में |
हम ही सिर्फ़ मुहाज़िर हैं
उनके पाकिस्तानों में |
४ अगस्त १९९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Tuesday, October 28, 2008
कोई दीप जलाये रखना
बनी हवेली उनके मन की |
लेकिन जगह नहीं आँगन की |
कोई दीप जलाए रखना
जब जब चलें हवाएँ सनकी |
बेर झूमते हैं मस्ती में
देह चिर रही कदली-वन की | *
जब महका साँपों ने घेरा
कैसी किस्मत है चंदन की |
कौन किसी का दुःख-सुख पूछे
सबको चिंता अभिनन्दन की |
क्या-क्या नाच नचाती हमको
अभिलाषा उनके दर्शन की |
२५-दिसम्बर-१९९४
* कहु रहीम कैसे निभे, केर-बेर कर संग | वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग || (रहीमजी का दोहा)
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Monday, October 27, 2008
छोटा था आकाश बहुत
आँधी, वर्षा, तूफाँ सब कुछ झेल गए हँसते-हँसते
शायद उनके वादों पर था, हमको ही विश्वास बहुत|
प्रथम किरण से गोधूली तक कहाँ-कहाँ उड़ते फिरते
परवाज़ें थीं बहुत बड़ी और, छोटा था आकाश बहुत|
रुपया, पैसा, कपड़ा ,लत्ता, गाड़ी, बंगला सब तो है
क्या बतलाएँ किसकी ख़ातिर, हम हैं आज उदास बहुत|
साक़ी, सागर, मीना सब थे उनकी महफ़िल में लेकिन
हमने अपना खून पी लिया, क्या करते थी प्यास बहुत|
५-जून-२०००
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Sunday, October 26, 2008
राणा के घाव
लकड़ी है अनाज के भाव |
कैसे जलते रहें अलाव |
सबको महफ़िल की ज़ल्दी है
कौन गिने राणा के घाव |
घर वाले ही छेद कर रहे
कैसे बच पायेगी नाव |
कौन पुकार सुने द्रुपदा की
बूढे-बड़े खेलते दाँव |
फील-पाँव का भरम खुल गया
नाहक पटक रहे हो पाँव |
लार टपकती जब दूल्हे को
सब बाराती हैं बेभाव |
२४-जून-२०००
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Rana's (Sangaa) wounds
wood is as pricy as grain
how can the cooking fire keep burning?
everyone is in rush to get to the court
who has time to count Rana's wounds
(reference to Rana Sangaa - the great warrior who had many wounds in the battlefield)
when insiders are making holes
how can the boat be saved?
who will hear the cries of help of draupadi
when elders are gambling
now we know it is elephant-foot
your foot-stomping is useless now
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
कैसे जलते रहें अलाव |
सबको महफ़िल की ज़ल्दी है
कौन गिने राणा के घाव |
घर वाले ही छेद कर रहे
कैसे बच पायेगी नाव |
कौन पुकार सुने द्रुपदा की
बूढे-बड़े खेलते दाँव |
फील-पाँव का भरम खुल गया
नाहक पटक रहे हो पाँव |
लार टपकती जब दूल्हे को
सब बाराती हैं बेभाव |
२४-जून-२०००
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Rana's (Sangaa) wounds
wood is as pricy as grain
how can the cooking fire keep burning?
everyone is in rush to get to the court
who has time to count Rana's wounds
(reference to Rana Sangaa - the great warrior who had many wounds in the battlefield)
when insiders are making holes
how can the boat be saved?
who will hear the cries of help of draupadi
when elders are gambling
now we know it is elephant-foot
your foot-stomping is useless now
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Saturday, October 25, 2008
नेटवर्क मज़बूत है टी.वी. का श्रीमान
नेटवर्क मज़बूत है टी.वी. का श्रीमान |
बचकर जायेगा कहाँ भोला हिन्दुस्तान|
भोला हिन्दुस्तान, 'नेट' में फँस जायेगा |
देख-देख नंगापन, अंधा हो जायेगा |
कह जोशी कविराय, राह जो देख न पाये |
उसे 'मुक्त-बाज़ार' जिधर चाहे ले जाए ||
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
sir, TV's network is very strong|
where will the naive India escape?
Naive India, will be caught in the "Net' |
will go blind watching overdoze of (near)nakedness|
so says joshi kavi, those who can't see the path |
'free market' will lead them where it wishes!
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
बचकर जायेगा कहाँ भोला हिन्दुस्तान|
भोला हिन्दुस्तान, 'नेट' में फँस जायेगा |
देख-देख नंगापन, अंधा हो जायेगा |
कह जोशी कविराय, राह जो देख न पाये |
उसे 'मुक्त-बाज़ार' जिधर चाहे ले जाए ||
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
sir, TV's network is very strong|
where will the naive India escape?
Naive India, will be caught in the "Net' |
will go blind watching overdoze of (near)nakedness|
so says joshi kavi, those who can't see the path |
'free market' will lead them where it wishes!
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - raam dhun,
globalization,
hindi,
poem,
satire,
urban life,
कुण्डलिया,
पुस्तक - राम धुन
अमरीका 'कान्हा' हुआ, 'गोपी' पिछड़े देश
अमरीका 'कान्हा' हुआ, 'गोपी' पिछड़े देश |
विश्व-बैंक-तरु पर चढ़ा, चोरी करके ड्रेस |
चोरी करके ड्रेस, गोपियाँ हा-हा खातीं |
ऋण के जल से बाहर आने से घबरातीं |
कह जोशी कविराय, 'उघाड़ीकरण' हो गया |
मुक्त-व्यवस्था-यमुना-तट पट-हरण हो गया ||
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
america is 'krishna', all developing countries - 'gopi'es|
has climbed the tree of world bank, having stolen the dress |
having stolen the dress, the gopies crying out loud |
they are scared to come out of the waters of debt |
so says joshi kavi, 'undressing' has happened |
on the banks of the free market yamuna, 'unveiling' has happened!
(reference to world bank, WTO, exploitation of developing countries, krishna's stealing the dresses of gopies)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
विश्व-बैंक-तरु पर चढ़ा, चोरी करके ड्रेस |
चोरी करके ड्रेस, गोपियाँ हा-हा खातीं |
ऋण के जल से बाहर आने से घबरातीं |
कह जोशी कविराय, 'उघाड़ीकरण' हो गया |
मुक्त-व्यवस्था-यमुना-तट पट-हरण हो गया ||
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
america is 'krishna', all developing countries - 'gopi'es|
has climbed the tree of world bank, having stolen the dress |
having stolen the dress, the gopies crying out loud |
they are scared to come out of the waters of debt |
so says joshi kavi, 'undressing' has happened |
on the banks of the free market yamuna, 'unveiling' has happened!
(reference to world bank, WTO, exploitation of developing countries, krishna's stealing the dresses of gopies)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - raam dhun,
globalization,
hindi,
poem,
satire,
कुण्डलिया,
पुस्तक - राम धुन
कर्जे के ठाठ
कर्ज़े के ही हों भले, इन्हे चाहिए ठाठ |
जानकार कहते इसे, सोलह दूनी आठ |
सोलह दूनी आठ, समझ इनके मनसूबे |
ये नौकायन करें, मुल्क मझाधारों डूबे |
कह जोशी कविराय, क़र्ज़ भारत के खाते |
नेता मार डकार, रहेंगे आते-जाते ||
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
they want ishtyle, even on loan!
those in the know call it - sixteen two's are eight |
sixteen two's are eight, understand their intentions!
they to enjoy boat-ride, nation may drown (in debt) |
so says joshi kavi, loan in country's account |
politicians burp and will keep coming and going | (corruption will continue, it is in the system)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
जानकार कहते इसे, सोलह दूनी आठ |
सोलह दूनी आठ, समझ इनके मनसूबे |
ये नौकायन करें, मुल्क मझाधारों डूबे |
कह जोशी कविराय, क़र्ज़ भारत के खाते |
नेता मार डकार, रहेंगे आते-जाते ||
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
they want ishtyle, even on loan!
those in the know call it - sixteen two's are eight |
sixteen two's are eight, understand their intentions!
they to enjoy boat-ride, nation may drown (in debt) |
so says joshi kavi, loan in country's account |
politicians burp and will keep coming and going | (corruption will continue, it is in the system)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - karze ke ThaaTh,
hindi,
poem,
satire,
कुण्डलिया,
पुस्तक - कर्जे के ठाठ
Friday, October 24, 2008
गड़बड़ है
छुप कर लोग मचानों में |
छोडें तीर ढलानों में |
हम तनहा थे क्या करते
सबके सधे निशानों में|
सौदा-सुलुफ ज़रूरी है
पर ख़तरा दूकानों में | *
टूटा गरब सुजान भगत का
भूख भरी खलिहानों में | *
हमको ही म'अ कम मिलती है
गड़बड़ है पैमानों में | *
३ अगस्त १९९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
Something Is Wrong
hiding atop the machaan (in hunting)
people shoot arrows down the slope
i was alone, what to do
was in everyone's aim easily
commerce is important
but danger is in the market *
pride of sujaan bhagat is broken
only hunger is in the graneries *
i only get less drink
something wrong with the measurements *
* reference to the open markets, one-sided economic reforms, proposals and deals
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
globalization,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Wednesday, October 22, 2008
दो रुबाइयाँ
बंद मुट्ठी में कभी व्योम नहीं होता है |
चन्द प्यालों में ढला सोम नहीं होता है |
मुल्क से मिलना है तो जनपथ पे चलो,
झुंड चमचों का कोई कौम नहीं होता है |
जिंदगी दिन से या रातों से नहीं होती है |
मुहब्बत सिर्फ़ मुलाकातों से नहीं होती है |
जो सर हथेली पर लेके चलें - वो आयें ,
इश्क की बात है, बातों से नहीं होती है |
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Monday, October 20, 2008
फ़ाइलों में फ़सल
फ़ाइलों में फ़सल हो रहे हैं |
रेत में भी कमल हो रहे हैं |
वक़्त को तुक नहीं मिल रही है
आप ताज़ा ग़ज़ल हो रहे हैं |
खेत का जिस्म तड़का हुआ है
आप क्यूं जल-महल हो रहे हैं |
आदमी से तो मिलते नहीं हैं
जाने किसकी नक़ल हो रहे हैं |
वो कभी भी किसी के न थे
आप जिनकी बगल हो रहे हैं |
चंद नारे घुसे हैं घरों में
आदमी बेदखल हो रहे हैं |
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Sunday, October 19, 2008
रहनुमा का खौफ़
आजकल कर्फ्यू शहर में है |
लोग सहमे,डरे घर में हैं |
पाँव लटके कब्र में तो क्या
हाथ कुर्सी की कमर में हैं |
ज़हर अमृत में नहीं कुछ फर्क
बात तो सारी असर में है |
देख लेना सत्य ही होंगे
ख्वाब जो मेरी नज़र में हैं |
रहनुमा का खौफ तबसे है
आदमी जब से सफ़र में है |
मंजिलें मुश्किल बहुत तो क्या
हौसला अब भी बशर में है |
१६ नवम्बर ९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Wednesday, October 15, 2008
कन्धों पर भारी है सर
दुहरी होने लगी कमर |
कन्धों पर भारी है सर |
राम-राम आदाब बंद हैं
धर्मों में बँट गया शहर |
शाम हुई घर जाना है
पर कैसा और किसका घर |
क्यूँ हर रात सताता है
रोज़ सुबह होने का डर |
मौसम क्या रुक पायेगा
जब तक होगी उन्हें ख़बर |
मंजिल का कुछ पता नहीं
सारा जीवन सिर्फ़ सफ़र |
विष पीकर जीती दुनिया
अमृत पीकर जाती मर |
दिल की राहें रोक खड़े
पत्थर के मस्ज़िद-मंदर |
१९-मई-१९९५
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
And here is an approximate translation -
The head is heavy on the shoulders|
the back is getting doubly bent|
the head is heavy on the shoulders|
raam-raam and aadaab (salutations of hindus and muslims) are no more
the city is divided in religions |
it is evening and should go home
but what home? whose home?
why does it scare every night
the fear of the morning!
will the seasons (situations) remain still
till they get to know?
no idea of any destination
this whole life has been a journey!
they live drinking poison
and die drinking nectar!
as hurdles on the path of the hearts
stand the mosques and temples |
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
Labels:
book - begAne mausam,
ghazal,
hindi,
poem,
satire,
पुस्तक - बेगाने मौसम
Subscribe to:
Posts (Atom)