Wednesday, December 24, 2008
सुर्खी है अखबारों में
या तो रौनक बाज़ारों में ।
या सत्ता के गलियारों में ।
चेहरे होते जाते पीले
पर सुर्खी है अख़बारों में ।
जड़ा फ़र्श पर संगेमरमर
मगर दरारें दीवारों में ।
धरती पर काँटे,उनको क्या
जिनको उड़ना गुब्बारों में ।
चला 'लोक' से 'तंत्र' हमारा
क़ैद हो गया परिवारों में ।
अपना चेहरा लेकर क्या तुम
जा पाओगे दरबारों में ।
२२ नवम्बर १९९७
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
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पुस्तक - बेगाने मौसम
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5 comments:
बहुत ख़ूब ताज़ा महौल को बनाये रखा है रचना में
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http://prajapativinay.blogspot.com/
सीधी भाषा में सटीक ग़ज़ल
यथार्त को चित्रित करती सुंदर ग़ज़ल बहोत खूब लिखा है आपने ........
चेहरे होते जाते पीले / पर सुर्खी है अख़बारों में
और
चला 'लोक' से 'तंत्र' हमारा / क़ैद हो गया परिवारों में ..
सुंदर रचना
आदरणीय अंकल,
आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
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