Saturday, November 8, 2008

क्या पता उनको


ढूँढते हैं वे मनोरंजन ख़बर में।
क्या पता उनको घुटन कितनी क़बर में ।

सिर्फ़ पानी ही नहीं मिलता फ़सल को
लाश भी तिरती मिली अक्सर नहर में ।

बहुत भारी पड़ रहा हर एक लम्हा
चल रहा है ठीक सब उनकी नज़र में ।

हम स्वयं ही मंज़िलों तक पहुँच जाते
रहनुमाँ 'गर कम मिले होते सफ़र में ।

गाँव से उम्मीद लेकर तो चला था
खो गया पर आदमी आकर शहर में ।

ज़हर पीने से हमें इंकार कब था
ज़हर की तासीर तो होती ज़हर में ।

१६ नवम्बर १९९५

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)

-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
http://joshikavi.blogspot.com

No comments: