Thursday, January 22, 2009

ऐसा भी अफसाना

यूं भी आँख चुराना क्या ।
इतना भी घबराना क्या ।

जब ख़ुद से अनबन रहती हो
दुनिया से बतियाना क्या ।

अगर फैसले पहले तय हों
तो फरियाद सुनाना क्या ।

जिसमें नायक का मरना तय
ऐसा भी अफसाना क्या ।

'गर ताबीर नहीं हो तो फिर
सपना लाख सुहाना क्या ।

कोई मक़सद नहीं अगर तो
जीना क्या, मर जाना क्या ।

१२ नवम्बर १९९९

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Friday, January 16, 2009

आप सो रहे हैं टाँग पसारे


सूरज चन्दा सारे तारे ।
धरती और आकाश तुम्हारे ॥

सारा चारा आप चर गए
लोग अभी तक हैं बेचारे ।

ओठों से कुछ और बोलते
आँख करे कुछ और इशारे ।

एक टाँग पर मुल्क खड़ा है
आप सो रहे हैं टाँग पसारे ।

बाट जोतते उजियारे की
अब भी बस्ती गाँव दुआरे ।

४ सितम्बर १९९७

-- ११ साल पहले लिखी यह ग़ज़ल आज भी उतनी ही शाश्वत प्रतीत होती है, कि समझ नहीं आता अपनी नज़र की दाद दूँ या देश के दुर्भाग्य पर शोक ।

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Wednesday, January 14, 2009

डायरी


करती नींद हराम डायरी ।
कैसी है हे राम! डायरी ॥

करते जो हालात कराता
कुछ ना आए काम डायरी ॥

वह लिखने में कब आता है
जो देती अंजाम डायरी ॥

नहीं दीखती जिनको मंजिल
उनके लिए मुकाम डायरी ॥

ज्यादातर को गुठली भर है
कुछ के खातिर आम डायरी ॥

राजा भोज साफ़ बच जाते
गंगू को इल्ज़ाम डायरी ॥

दुनिया की डायरियाँ झूठी
सच जो लिक्खें राम डायरी ॥

२८ अगस्त १९९८

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Tuesday, January 13, 2009

महलों में दीवाली देख

देख झरोखे,जाली देख ।
महलों में दीवाली देख ॥

राजा रखवालों में छुप कर
करे तेरी रखवाली देख ।

क्यों ओठों पर जीभ फिराता
उनके रुख की लाली देख ।

अपनी भूख भूल टी.वी. में
सजी सजाई थाली देख ।

तेरी चाँद भले हो गंजी
उनकी जुल्फें काली देख ।

पहुँच गया सब माल विदेशों
अपनी जेबें खाली देख ।

अपने मुँह मिट्ठू बनते वो
लोग बजाते ताली देख ।

'तंत्र' मसीहा बन कर बैठा
सारा 'लोक' सवाली देख ।

भले जनों को भाषण झाड़ें
लम्पट धूर्त मवाली देख ।

छोड़ देखना फिल्मी 'फायर' *
जा अपनी घरवाली देख ।

(* दीपा मेहता की फ़िल्म फायर का सन्दर्भ )

१५ दिसम्बर १९९८

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Monday, January 12, 2009

सूरज जलता है


वो यूँ तो चुप रहता है ।
पर कितना कुछ कहता है ॥

उसकी आँखों का आँसू
मेरी आँखों बहता है ।

जिससे मेरा झगड़ा है
दिल में ही तो रहता है ।

पत्थर के सीने में भी
कोई झरना बहता है ।

तुमने सिर्फ़ रोशनी देखी
लेकिन सूरज जलता है ।

२३ दिसम्बर १९९८

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Sunday, January 11, 2009

हम तो


हम क्या करते 'गर कमरों में कुरसी ठिठुरे ।
रगड़ हथेली गरमी पैदा करते हम तो ॥

उनके महलों के दीपक की गरमी लेकर
खड़े रात भर जमुना जल में रहते हम तो ।

फिक्रमंद हैं आप हमारे लिए सुना है
इसी भरोसे हर मौसम को सहते हम तो ।

आप चेतनायुक्त, आपकी वाणी में बल
गूँगे मक्खी-मच्छर हैं क्या करते हम तो ।

आप तैर सकते उलटी धाराओं में भी
इक लावारिस लाश धार संग बहते हम तो ।

पेड़ जलें गरमी में जैसे, सरदी में भी
हम भी वैसे बाड़मेर हैं दहते हम तो । *

(* राजस्थान के बाड़मेर जिले में गरमी और सर्दी दोनों अधिक पड़ते हैं)

१ जनवरी १९९९

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Saturday, January 10, 2009

शब्द और आचरण


भावना बिन क्या धरा है व्याकरण में ।
शब्द का अनुवाद तो हो आचरण में ॥

हैं सुरक्षित चंद घर औ ' लोग माना
घूमता आतंक पर वातावरण में ।

स्वयं की रक्षा सभी मिलकर करें अब
'तंत्र' तो है लिप्त अपराधीकरण में ।

छोड़िए सद्भावना संदेश देना
होइए शामिल कभी जीवन मरण में ।

और भी हैं धर्म मानव देह के पर
दे रहें हैं ध्यान सब बाजीकरण में ।

रत्न आभूषण बहुत पहने हुए हैं
पर कहाँ हैं सत्य-करुणा आभरण में ।

२८ जनवरी १९९९

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Monday, January 5, 2009

ईद और मुहर्रम



उनसे सारी उमर ठनी ।
मगर न कोई बात बनी ।

घर-आँगन चंदन महके
मन में फूले नागफनी ।

गीली दीवारें मिट्टी की
सर पर काली घटा तनी ।

जो जितने अनजाने थे
उनमें उतनी अधिक छनी ।

झोंपडियों पर लिखा मुहर्रम
बड़े घरों में ईद मनी ।

१७ दिसम्बर १९९८

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