Thursday, March 17, 2011

मैं रंग बेचता हूँ


(बतर्ज़- मैं गीत बेचता हूँ- भवानी प्रसाद मिश्र )

मैं रंग बेचता हूँ,
जी हाँ, मैं रंग बेचता हूँ |

यह रंग लाल है
इसमें बड़ा कमाल है
संतानोत्पत्ति का लाइसेंस, शादी का लाल जोड़ा
और परिवार नियोजन का लाल तिकोन इसी रंग का बनता है
यह रंग आस्तिक हनुमान भक्तों से लेकर
नास्तिक कम्यूनिस्टों तक समान रूप से चलता है |
इस रंग से एक फीता भी बनता है
जो यदि किसी कर्मचारी की फ़ाइल पर बँध जाए
तो उसके महाप्रयाण तक भी मुश्किल से खुलता है |

मैं रंग बेचता हूँ,
जी हाँ, मैं रंग बेचता हूँ |

यह रंग हरा है
विकास का सारा अर्थशास्त्र इसी से भरा है
समझदार सरकार
इस रंग से चश्मे बनवाती है
और जनता को पहनती है
तो भोली-भली जनता
सूखा भूसा भी
पालक समझ कर शौक से चर जाती है
और इस प्रकार हरित-क्रांति हो जाती है |

मैं रंग बेचता हूँ,
जी हाँ, मैं रंग बेचता हूँ |

यह रंग सफ़ेद है
इसमें भी बड़े भेद हैं |
इस रंग से सरकार डेरियाँ खुलवाती है
जिनमें बैठते हैं राजहंस
जो दूध-दूध पी जाते हैं
और छोड़ देते हैं पानी,
और इस पानी के लिए भी जनता लाइन लगाती है
इस प्रकार 'श्वेत-क्रांति' हो जाती है |

मैं रंग बेचता हूँ
जी हाँ, मैं रंग बेचता हूँ |

और अंत में पेश है सब रंगों का बाप
काला
इसीमें है सबसे ज्यादा गड़बड़-झाला |
जिस पर यह रंग चढ़ जाता है
उसे किसी भी का भी डर नहीं रहता है
और वह सारे आरोपों के बावज़ूद
बेशर्मी से गद्दी पर जमा रहता है |
जब यह रंग धन पर चढ़ जाता है
तो फिर उस धन को पंख लग जाते है
और वह उड़ कर स्विस बैंक में पहुँच जाता है |

मैं रंग बेचता हूँ
जी हाँ, मैं रंग बेचता हूँ

यदि आपको बुरा लग गया हो,
इनमें से कोई रंग
आपको कहीं गहरे तक छू गया हो
तो नाराज़ मत होइए,
हमारी सेवाभावी सरकार साबुन भी बनाती है
जिसे लगाकर
कोई भी काले कारनामे करने वाली जमात
उजली नज़र आती है |
लीजिए,
मैं सरकारी साबुन भी इसके संग बेचता हूँ |

मैं रंग बेचता हूँ,
जी हाँ, मैं रंग बेचता हूँ |

-रमेश जोशी
बैंगलोर

४-३-१९८०

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi

Friday, March 11, 2011

बामियान में बुद्ध-मूर्ति-भंजन की दसवीं 'जयन्ती'


(मार्च २००१ में अफगानिस्तान के बामियान में तालिबानों ने बुद्ध की मूर्तियों को डायनामाईट से उड़ा दिया | उसी सन्दर्भ में ये रचनाएँ मार्च २००१ में लिखी गई थीं )

१. हमने क्षमा करना

हमें क्षमा करना प्रभु तथागत !
हम आपके पचास प्रतिशत अनुयायी हैं ।
सत्य और करुणा नहीं
हमने केवल अहिंसा की शपथ खायी है ।


इसलिए हम इस उन्माद के विरुद्ध
कोई अहिंसक कदम ही उठा सकते हैं,
बंद कमरे में
केवल विरोध का प्रस्ताव ही ला सकते हैं ।
वैसे तब तो हमने विरोध का प्रस्ताव भी पास नहीं किया था
जब महमूद गज़नवी तोड़ रहा था सोमनाथ का मंदिर,
जब तीर्थराज को बना दिया गया था अल्लाहाबाद,
जब प्रस्तुत किया गया था औरंगजेब द्वारा
दारा का सिर शाहजहाँ को,
खींच ली थी मुराद की ज़बान,
जलाया गया था गुरु तेग बहादुर को,
लाया गया था अमरीका की धरती पर पहला काला गुलाम
जाल में जकड़ कर जंगली जानवर की तरह,
जब मारी गई थी लिंकन या लूथर किंग को गोली,
जब गिराया गया था जापान पर पहला अणु-बम,
जलियाँवाला बाग में भून दिया गया था
निहत्थे प्रदर्शनकारियों को,
क़त्ल कर दिया था हिटलर ने साठ लाख यहूदियों को,
चढ़ाया गया था जब ईसा को सलीब पर,
या ईसाई-धर्म के नाम पर जब योरप में
जला दिया गया था लाखों महिलाओं को चुड़ैल कह कर,
जब निष्कासित किया गया था दलाईलामा या तस्लीमा नसरीन को,
या जब खबर आई थी
पृथ्वीराज चौहान की कब्र पर
काबुल में जूते मारे जाने की प्रथा की
या रोज अमरनाथ के तीर्थ-यात्रियों की हत्या के समाचार सुनकर
हमने कोई विरोध भी प्रकट नहीं किया था ।

फिर यह कोई तथाकथित विवादित ढाँचा तो है नहीं
जिसकी हर वर्ष मनाई जाए बरसी,
और नहीं चलने दी जाए संसद ।
इतना क्या कम है कि
पास कर दिया गया है एक प्रस्ताव ।
इससे ज्यादा इस न्यूज में कोई दम भी तो नहीं है ।


रख तो दिया
गाज़ियाबाद का नाम गौतम बुद्ध नगर,
बना तो दिया गया एक और नया जिला 'महामाया नगर'
और बना तो दिया गया एक पार्क 'बुद्ध-जयन्ती-पार्क'
जिसमें मिलते हैं ज़वान मध्यमार्गी ।
इससे ज्यादा आशा मत करो
इस छोटे से वोट बैंक के लिए ।

गुज़र जाने दो, दो-चार महिने
हो जाने दो पूरी सफाई ईद के पवित्र त्यौहार से पहले
पूरा हो जाने दो फतवों का लक्ष्य ।
तब जागेंगे हम धर्म-प्राण प्रगतिवादी
और पुलिस की तरह पहुँचेंगे हत्या के बाद ।
और करवा देंगे कोई निबंध प्रतियोगिता,
आशु-भाषण प्रतियोगिता या ‘ओन द स्पोट पेंटिंग कम्पीटीशन’,
रख देंगे तुम्हारे नाम पर किसी सड़क का नाम
तब तक जब तक न आए
उसे बदलने के लिए कोई मसीहा ।

आत्मा तो अमर होती है और शरीर नश्वर
फिर एक मूर्ति के लिए रोने का क्या अर्थ
और फिर तुम्हारा तो निर्वाण हो गया था
निर्वाण के बाद तो आत्मा भी दाखिल-दफ्तर हो जाती है ।

वैसे देखेंगे इसके बाद भी
किसी पुस्तक का मसाला, गोष्ठी का विषय,
रैली का मुद्दा, पत्रिका के विशेषांक की सामग्री,
किसी मसाला-फिल्म का विषय
निकल आया तो
परोस देंगे तुम्हें भी विज्ञापनों के बीच
कंडोम या कोक की तरह ।

अगर काम का हो तुम्हारी मूर्तियों का चूर्ण
तो उसका भी बना देंगे एक स्मारक,
भरकर किसी कलश में घुमा देंगे 'बुद्ध-रथ'
'धर्म-युद्ध-रथ' की तरह,
जनता पर सरचार्ज लगाकर
बना देंगे कोई राहत-कोष ।

मगर अभी तो इतना ही ।


तुम्हारी प्रतिमाओं से कहाँ निकालता है पेट्रोल,
कब मिलते हैं वोट,
और फिर इस धुआँधार वैश्वीकरण के दौर में
कहाँ अड़ा रहे हो अपने 'सम्यक-सत्यों' की आठ टाँगें ।

अभी कहाँ है समय तुम्हारे लिए
अभी तो चल रहा है पाकिस्तान के साथ ‘संघर्ष-विराम’,
उदारीकरण का दूसरा दौर,
सिर पर खड़ा है चुनाव जिसके लिए जुटाना है फंड,
और एक तुम हो कि
'तहलका डॉट कोम’ की तरह हुए जा रहे हो विस्फोटित ।

अभी तो हमने क्षमा करना, तथागत !

७-३-२००१


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