Tuesday, October 28, 2008

कोई दीप जलाये रखना


बनी हवेली उनके मन की |
लेकिन जगह नहीं आँगन की |

कोई दीप जलाए रखना
जब जब चलें हवाएँ सनकी |

बेर झूमते हैं मस्ती में
देह चिर रही कदली-वन की | *

जब महका साँपों ने घेरा
कैसी किस्मत है चंदन की |

कौन किसी का दुःख-सुख पूछे
सबको चिंता अभिनन्दन की |

क्या-क्या नाच नचाती हमको
अभिलाषा उनके दर्शन की |

२५-दिसम्बर-१९९४


* कहु रहीम कैसे निभे, केर-बेर कर संग | वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग || (रहीमजी का दोहा)

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4 comments:

पारुल "पुखराज" said...

कौन किसी का दुःख-सुख पूछे
सबको चिंता अभिनन्दन की |

sahi hai..bahut khuub

joshi kavirai said...

धन्यवाद | दीपावली की शुभकामनाएं |

Udan Tashtari said...
This comment has been removed by a blog administrator.
Dr. Amar Jyoti said...

'कोई दीप जलाए रखना…।'
बहुत ख़ूब। पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूं। मगर अब तो आना ही पड़ेगा। आप लिखते ही ऐसा हैं। बधाई।