Friday, November 21, 2008

संवाद



इधर उधर चहरे ही चहरे।
अन्दर छिछले,बाहर गहरे।

तरह तरह की दौड़ लगाते
लेकिन एक जगह पर ठहरे।

दुहरी हुई कमर जनता की
झंडा ऊँचा-ऊंचा फहरे।

सदियों से संवाद चल रहा
श्रोता गूंगे,वक्ता बहरे।

खुशबू को कैसे बाँधोगे
फूलों पर बैठा दो पहरे।

९ नवम्बर २०००

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And here is an approximate translation -

Dialogue

faces all over, here and there
inside shallow, outside deeper

they are all over the space
but never move from their place

people are becoming hunchbacked
flying ever higher is the flag

dialogue is going on for centuries
audience is dumb, speakers deaf

how to restrain the fragrance
put the flowers under arrest.



(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।

joshi kavirai said...

धन्यवाद, आपको रचना अच्छी लगी| मैं तो बस जो देखा, महसूस किया, सो लिख देता हूँ |

Anonymous said...

सुंदर|