Friday, May 15, 2009

मरते हैं जी जाने में

पैसे चार कमाने में ।
मरते हैं जी जाने में ॥

कितना ऊँचा काम कर गए ।
इस चालाक ज़माने में ॥

हमने सारी उमर बिता दी
उनका दिल बहलाने में ॥

फिर भी जगह मिली चौखट पर
उनके दौलतखाने में ॥

बैठक में मीठी लफ़्फ़ाजी
सत्य कहीं तहखाने में ॥

भीड़-भाड़ में क्या बतलाएँ
कभी मिलो वीराने में ॥

२४ अक्टूबर २००५

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6 comments:

shashi said...

प्रणाम कविवर!

Yogesh Verma Swapn said...

aapki rachnaon ko mera naman.joshi ji , mere pas aapki tareef ke liye shabdon ki kami hai, kuchh iska bhi ilaaj karen.

swapnyogesh.blogspot.com

राकेश जैन said...

shabdateet sundar..!

वीनस केसरी said...

फिर भी जगह मिली चौखट पर
उनके दौलतखाने में ॥

आज आपका ये शेर पूरा नहीं लगा इसको पूरा करने के लिए इसके पहले वाला शेर भी जोड़ना पड़ेगा जो नियम के खिलाफ है हर शेर को अपने में पूर्ण होना चाहिए
आपका वीनस केसरी

joshi kavirai said...

वीनस, धन्यवाद |
वैसे कविता में कवि के भाव ही मुख्य होते हैं, फिर भी हल्का सा परिवर्तन कर के नियम भी रखा जा सकता है -

जगह मिली तो बस चौखट पर
उनके दौलतखाने में |

Sulabh Jaiswal "सुलभ" said...

बैठक में मीठी लफ़्फ़ाजी
सत्य कहीं तहखाने में ॥

भीड़-भाड़ में क्या बतलाएँ
कभी मिलो वीराने में ॥

ye panktiyaan achhi lagi.