Wednesday, February 11, 2009

मचलता पारा हुआ है आदमी

वक्त का मारा हुआ है आदमी ।
तंत्र से हारा हुआ है आदमी ।

बस चुनावों के समय उनके लिए
काम का नारा हुआ है आदमी ।

वोट दें, ना दें, चुने जायेंगे वो
क्यूँ यूँ बेचारा हुआ है आदमी ।

कब से घर सर पर उठाये फिर रहा
एक बंजारा हुआ है आदमी ।

क़ैद मुट्ठी में नहीं कर पाओगे
मचलता पारा हुआ है आदमी ।

साफ़ उत्तर आपको देना पड़ेगा
प्रश्न दुबारा हुआ है आदमी ।

११ मई २००४


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3 comments:

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

कब से घर सर पर उठाये फिर रहा
एक बंजारा हुआ है आदमी ।
वाह्! क्या खूब लिखा है.......जोशी जी आपने तो बिल्कुल ही यथार्थ का चित्रण कर डाला.

योगेन्द्र मौदगिल said...

अच्छी कविता की प्रस्तुति के लिये साधुवाद स्वीकारें

bijnior district said...

वोट दें, ना दें, चुने जायेंगे वो
क्यूँ यूँ बेचारा हुआ है आदमीं।

शानदार गजल। बधाई