Saturday, February 7, 2009

ग्लोबल गाँव

ठुड्डी घुटनों तक पहुँचाई ।
फिर भी छोटी पड़ी रजाई ।

हमसे इतनी दूर हुए वो
जितनी डी.ऐ. से महँगाई ।

खिड़की, दरवाजे बिन पल्ले
हवा बह रही है पछवाई ।

सुख को बहुमत ना मिल पाया
औ' दुःख ने कुर्सी हथियाई ।

रहे पास में लेकिन ऐसे
जैसे अमरीका क्यूबाई ।

दुनिया ग्लोबल गाँव हुई पर
वो ही बकरे, वही कसाई ।

२१ मार्च २०००

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1 comment:

Anonymous said...

मज़ा आ गया पढ़कर, वो ही बकरे वही कसाई! सही बात है हमारे पड़ोसियों से भी तो ऐसे ही कुछ रिश्ते हें, फिर वो पाक हो या चीन, अब तो नेपाल भी बगावत पे उतर आया। किस किस को संभालें!