Thursday, January 22, 2009

ऐसा भी अफसाना

यूं भी आँख चुराना क्या ।
इतना भी घबराना क्या ।

जब ख़ुद से अनबन रहती हो
दुनिया से बतियाना क्या ।

अगर फैसले पहले तय हों
तो फरियाद सुनाना क्या ।

जिसमें नायक का मरना तय
ऐसा भी अफसाना क्या ।

'गर ताबीर नहीं हो तो फिर
सपना लाख सुहाना क्या ।

कोई मक़सद नहीं अगर तो
जीना क्या, मर जाना क्या ।

१२ नवम्बर १९९९

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1 comment:

Udan Tashtari said...

कोई मक़सद नहीं अगर तो
जीना क्या, मर जाना क्या ।


--बेहतरीन!! वाह!