Friday, January 16, 2009

आप सो रहे हैं टाँग पसारे


सूरज चन्दा सारे तारे ।
धरती और आकाश तुम्हारे ॥

सारा चारा आप चर गए
लोग अभी तक हैं बेचारे ।

ओठों से कुछ और बोलते
आँख करे कुछ और इशारे ।

एक टाँग पर मुल्क खड़ा है
आप सो रहे हैं टाँग पसारे ।

बाट जोतते उजियारे की
अब भी बस्ती गाँव दुआरे ।

४ सितम्बर १९९७

-- ११ साल पहले लिखी यह ग़ज़ल आज भी उतनी ही शाश्वत प्रतीत होती है, कि समझ नहीं आता अपनी नज़र की दाद दूँ या देश के दुर्भाग्य पर शोक ।

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6 comments:

रंजना said...

Sahi kaha....rajniti ka yah satya sarvkalik bankar rah gaya hai.

नीरज गोस्वामी said...

होटों से कुछ और बोलते
आँख करे कुछ और इशारे
बहुत खूब जोशीजी...सच्ची बात...मजा आ गया...
नीरज

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

vaah-vaah
bahut khoob


vyangya aut vo bhee ghazal meN


praNaam
!

Udan Tashtari said...

बहुत खूब!!

joshi kavirai said...

द्विज जी, धन्यवाद् । मेरे ख्याल से व्यंग सबसे अच्छा हो ही ग़ज़ल में सकता है । पढ़ते रहिये और प्रतिक्रियाओं से अवगत कराते रहिये ।

नीरज जी, आप जैसे सुधी पाठक को पसंद आजाये इससे बड़ी ग़ज़ल की सफलता और क्या हो सकती है ।

समीर जी, वाकई आप उड़न तश्तरी ही हो। सारे आसमानों को कवर कर लेते हो । आते रहिये ।

Prakash Badal said...

अंकल क्या खूबसूरत गज़ल कही आपने! वाह!

ग़ज़ल मुझे आनंद के सागर में प्रवाहित कर ले गई।