यूं भी आँख चुराना क्या ।
इतना भी घबराना क्या ।
जब ख़ुद से अनबन रहती हो
दुनिया से बतियाना क्या ।
अगर फैसले पहले तय हों
तो फरियाद सुनाना क्या ।
जिसमें नायक का मरना तय
ऐसा भी अफसाना क्या ।
'गर ताबीर नहीं हो तो फिर
सपना लाख सुहाना क्या ।
कोई मक़सद नहीं अगर तो
जीना क्या, मर जाना क्या ।
१२ नवम्बर १९९९
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1 comment:
कोई मक़सद नहीं अगर तो
जीना क्या, मर जाना क्या ।
--बेहतरीन!! वाह!
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