यूं भी आँख चुराना क्या ।
इतना भी घबराना क्या ।
जब ख़ुद से अनबन रहती हो
दुनिया से बतियाना क्या ।
अगर फैसले पहले तय हों
तो फरियाद सुनाना क्या ।
जिसमें नायक का मरना तय
ऐसा भी अफसाना क्या ।
'गर ताबीर नहीं हो तो फिर
सपना लाख सुहाना क्या ।
कोई मक़सद नहीं अगर तो
जीना क्या, मर जाना क्या ।
१२ नवम्बर १९९९
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Thursday, January 22, 2009
Friday, January 16, 2009
आप सो रहे हैं टाँग पसारे
सूरज चन्दा सारे तारे ।
धरती और आकाश तुम्हारे ॥
सारा चारा आप चर गए
लोग अभी तक हैं बेचारे ।
ओठों से कुछ और बोलते
आँख करे कुछ और इशारे ।
एक टाँग पर मुल्क खड़ा है
आप सो रहे हैं टाँग पसारे ।
बाट जोतते उजियारे की
अब भी बस्ती गाँव दुआरे ।
४ सितम्बर १९९७
-- ११ साल पहले लिखी यह ग़ज़ल आज भी उतनी ही शाश्वत प्रतीत होती है, कि समझ नहीं आता अपनी नज़र की दाद दूँ या देश के दुर्भाग्य पर शोक ।
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पुस्तक - बेगाने मौसम,
व्यंग्य
Wednesday, January 14, 2009
डायरी
करती नींद हराम डायरी ।
कैसी है हे राम! डायरी ॥
करते जो हालात कराता
कुछ ना आए काम डायरी ॥
वह लिखने में कब आता है
जो देती अंजाम डायरी ॥
नहीं दीखती जिनको मंजिल
उनके लिए मुकाम डायरी ॥
ज्यादातर को गुठली भर है
कुछ के खातिर आम डायरी ॥
राजा भोज साफ़ बच जाते
गंगू को इल्ज़ाम डायरी ॥
दुनिया की डायरियाँ झूठी
सच जो लिक्खें राम डायरी ॥
२८ अगस्त १९९८
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पुस्तक - बेगाने मौसम
Tuesday, January 13, 2009
महलों में दीवाली देख
देख झरोखे,जाली देख ।
महलों में दीवाली देख ॥
राजा रखवालों में छुप कर
करे तेरी रखवाली देख ।
क्यों ओठों पर जीभ फिराता
उनके रुख की लाली देख ।
अपनी भूख भूल टी.वी. में
सजी सजाई थाली देख ।
तेरी चाँद भले हो गंजी
उनकी जुल्फें काली देख ।
पहुँच गया सब माल विदेशों
अपनी जेबें खाली देख ।
अपने मुँह मिट्ठू बनते वो
लोग बजाते ताली देख ।
'तंत्र' मसीहा बन कर बैठा
सारा 'लोक' सवाली देख ।
भले जनों को भाषण झाड़ें
लम्पट धूर्त मवाली देख ।
छोड़ देखना फिल्मी 'फायर' *
जा अपनी घरवाली देख ।
(* दीपा मेहता की फ़िल्म फायर का सन्दर्भ )
१५ दिसम्बर १९९८
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महलों में दीवाली देख ॥
राजा रखवालों में छुप कर
करे तेरी रखवाली देख ।
क्यों ओठों पर जीभ फिराता
उनके रुख की लाली देख ।
अपनी भूख भूल टी.वी. में
सजी सजाई थाली देख ।
तेरी चाँद भले हो गंजी
उनकी जुल्फें काली देख ।
पहुँच गया सब माल विदेशों
अपनी जेबें खाली देख ।
अपने मुँह मिट्ठू बनते वो
लोग बजाते ताली देख ।
'तंत्र' मसीहा बन कर बैठा
सारा 'लोक' सवाली देख ।
भले जनों को भाषण झाड़ें
लम्पट धूर्त मवाली देख ।
छोड़ देखना फिल्मी 'फायर' *
जा अपनी घरवाली देख ।
(* दीपा मेहता की फ़िल्म फायर का सन्दर्भ )
१५ दिसम्बर १९९८
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पुस्तक - बेगाने मौसम
Monday, January 12, 2009
सूरज जलता है
वो यूँ तो चुप रहता है ।
पर कितना कुछ कहता है ॥
उसकी आँखों का आँसू
मेरी आँखों बहता है ।
जिससे मेरा झगड़ा है
दिल में ही तो रहता है ।
पत्थर के सीने में भी
कोई झरना बहता है ।
तुमने सिर्फ़ रोशनी देखी
लेकिन सूरज जलता है ।
२३ दिसम्बर १९९८
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पुस्तक - बेगाने मौसम
Sunday, January 11, 2009
हम तो
हम क्या करते 'गर कमरों में कुरसी ठिठुरे ।
रगड़ हथेली गरमी पैदा करते हम तो ॥
उनके महलों के दीपक की गरमी लेकर
खड़े रात भर जमुना जल में रहते हम तो ।
फिक्रमंद हैं आप हमारे लिए सुना है
इसी भरोसे हर मौसम को सहते हम तो ।
आप चेतनायुक्त, आपकी वाणी में बल
गूँगे मक्खी-मच्छर हैं क्या करते हम तो ।
आप तैर सकते उलटी धाराओं में भी
इक लावारिस लाश धार संग बहते हम तो ।
पेड़ जलें गरमी में जैसे, सरदी में भी
हम भी वैसे बाड़मेर हैं दहते हम तो । *
(* राजस्थान के बाड़मेर जिले में गरमी और सर्दी दोनों अधिक पड़ते हैं)
१ जनवरी १९९९
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पुस्तक - बेगाने मौसम
Saturday, January 10, 2009
शब्द और आचरण
भावना बिन क्या धरा है व्याकरण में ।
शब्द का अनुवाद तो हो आचरण में ॥
हैं सुरक्षित चंद घर औ ' लोग माना
घूमता आतंक पर वातावरण में ।
स्वयं की रक्षा सभी मिलकर करें अब
'तंत्र' तो है लिप्त अपराधीकरण में ।
छोड़िए सद्भावना संदेश देना
होइए शामिल कभी जीवन मरण में ।
और भी हैं धर्म मानव देह के पर
दे रहें हैं ध्यान सब बाजीकरण में ।
रत्न आभूषण बहुत पहने हुए हैं
पर कहाँ हैं सत्य-करुणा आभरण में ।
२८ जनवरी १९९९
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पुस्तक - बेगाने मौसम
Monday, January 5, 2009
ईद और मुहर्रम
उनसे सारी उमर ठनी ।
मगर न कोई बात बनी ।
घर-आँगन चंदन महके
मन में फूले नागफनी ।
गीली दीवारें मिट्टी की
सर पर काली घटा तनी ।
जो जितने अनजाने थे
उनमें उतनी अधिक छनी ।
झोंपडियों पर लिखा मुहर्रम
बड़े घरों में ईद मनी ।
१७ दिसम्बर १९९८
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