Tuesday, March 1, 2011

'शिव-ताण्डव-स्तोत्र' का पद्यानुवाद


('शिव तांडव स्तोत्र' असत्य के प्रतिनिधि के रूप, हर दशहरे पर जिसके पुतले जलाए जाते हैं, उस रामायण के प्रतिनायक, महान शिवभक्त, लंकापति रावण के व्यक्तित्व का एक दूसरा, अल्पज्ञात किन्तु पांडित्यपूर्ण पक्ष प्रस्तुत करता है । रावण के इस स्तोत्र का कवि ने सन १९४२ में मूल छंद 'पंचचामर' में ही अनुवाद किया था जिससे संस्कृत न जानने वाले भक्त भी इसे समझ सकें और गाकर काव्य और भक्ति का वही आनंद प्राप्त कर सकें जो मूल स्तोत्र को गाने में आता है ।)

जटा विशाल में बहे तरंग गंग की अहा ।
लसै महान शीश पे हिले सुरम्य ज्यों लता ।
प्रशस्त-भाल में जले कराल ज्वाल है सदा ।
उसी मृगांक-मौलि में बढ़े सुभक्ति सर्वदा ॥१॥

विलास हाव-भाव जो करे नगेन्द्र की सुता ।
उसी असीम मोद से तुम्हार चित्त है भरा ।
दयार्द्र-दृष्टि से करे अनेक दूर आपदा ।
उसी दिगम्बरेश में लहें विनोद सर्वदा ॥२॥

जटास्थ सर्प की मणी प्रकाश पीत फेंक के ।
रही लगाय कुंकुमादिशांगना मुखाब्ज में ।
किए गजेन्द्र चरम का सुवस्त्र उत्तरीय वे ।
महान विश्वरक्षक प्रमोद चित्त में भरे ॥३॥

पुरान्दरादि के झुके प्रसून युक्त शीश से ।
गिरी हुई पराग से तुम्हार पाँव हैं सजे ।
बँधी जटा विशाल सर्पराज के शरीर से ।
वही मयंक-मौलि दें अपार सम्पदा हमें ॥४॥

ललाट चक्षु-ज्वाल से किया विदग्ध काम है ।
त्रिदेव में सुश्रेष्ठ विश्वनाथ को प्रणाम है ।
ललाम भाल है सजा निशीथ-नाथ रेख से ।
कपाल-पाणि धूर्जटी अनन्त भूति दें हमें ॥५॥

विशाल भाल चक्षु में जले प्रचंड ज्वाल जो ।
उसी महान आग से किया विदग्ध काम को ।
लिखे विचित्र चित्र जो उमा-कुचाग्र भाग में ।
बढ़े सदा रुची उसी त्रिनेत्र चित्रकार में ॥६॥

घिरी नवीन मेघ से अमावसी विभावरी ।
निशीथ कालिमा वही तुम्हार कंठ में सजी ।
जटा तरंग गंग है, गजेन्द्र चरम अंग है ।
विभूति दें हमें धरें ललाट जो मयंक हैं ॥७॥

खिले हुए सुरम्य नील कंज की सुनीलिमा ।
अहो, विराज कंठ में दिखा रही महाछटा ।
भजो उसी मखारि को, पुरारि को स्मरारि को ।
भवारि अन्तकारि को, गजारि अंधकारि को ॥८॥

अनेक सौख्य से भरे कला-कदम्ब-पुष्प के ।
मधु-प्रवाह पान से प्रमत्त चंचरीक जो ।
हते गजान्धकादि जो, दहे पुरस्मरादि जो ।
हरे विपत्ति, मृत्यु जो भजो उसी मखारि को ॥९॥

जटास्थ सर्प फेंक के विषाक्त ज्वाल व्योम में ।
विशालभाल-ज्वाल की करालता बढ़ा रहे ।
मृदंग की सुताल पे प्रचंड नृत्य जो करे ।
विजै हमें सदा वही महन नृत्यकार दें ॥१०॥

शिला पलंग और मौक्तिकावली भुजंग में ।
सुरत्न-धूलि-खंड और मित्र वा सपत्न में ।
सुलोचना व घास में प्रजा धराधिराज में ।
अभेद मान के कदा भजूँ सुयोगिराज मैं ॥११॥

पवित्र गंग तीर पे बना कुटीर रम्य मैं ।
बसूँ कुबुद्धि छोड़ के, विनम्र हाथ जोड़ के ।
विरक्त होय नारि से निमग्न ध्यान में सदा ।
नमः शिवाय मन्त्र को जपूँ बनूँ सुखी कदा ॥१२॥

निशाचरेंद्र ने रची अतीव उत्तमा स्तुति ।
इसे पढ़े, गुने, कहे पवित्रता लहे अति ।
गुरू महेश में बढ़े सुभक्ति हो न दुर्गति ।
करे प्रसन्न जीव को सुध्यान शम्भु का अति ॥१३॥

लंकेश की रचित जो इस प्रार्थना को ।
पूजा समाप्त करके रति से पढ़े तो ।
लक्ष्मी गजाश्व रथ धान्य धनादि ताँ को ।
देते महेश भज रे 'बजरंग' वाँ को ॥१४॥

वाक्य पुष्प पूजा करी अरपन चरन तुम्हार ।
हो प्रसन्न त्रिपुरारि अब करो इसे स्वीकार ॥१५॥

स्व. बजरंग लाल जोशी


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi

1 comment:

Anonymous said...

माननीय कविरायजी, आपका अनुवाद अप्रतिम है. यह अनुवादकेलिये आपके सहस्त्रश: धन्यवाद!