Thursday, December 31, 2009
प्याज सुमिरन - कुण्डलियाँ
छः दशकों की उपलब्धि
छः दशकों में हो गया सारा राज सुराज ।
घुसी तेल में ड्राप्सी, दुर्लभ आलू-प्याज ।
दुर्लभ आलू-प्याज, दूध पानी से सस्ता ।
पतली होती कभी तो कभी हालत खस्ता ।
कह जोशीकविराय देखना नई सदी में ।
मछली बचे न एक ग्राह ही ग्राह नदी में ।
भले ही अणुबम फोड़ें
जैसा जिसका मर्ज़ है वैसा करे इलाज ।
आप लूटते मज़े और लोग लूटते प्याज ।
लोग लूटते प्याज, उतारेंगे कल छिलके ।
ए मेरी सरकार ! रहें अब ज़रा सँभल कर ।
कह जोशीकविराय भले ही अणुबम फोड़ें ।
पर भूखों के लिए प्याज रोटी तो छोड़ें ।
दलित-उद्धार
छिलके-छिलके देह है, रोम-रोम दुर्गन्ध ।
सात्विक-जन के घरों में था इस पर प्रतिबन्ध ।
था इस पर प्रतिबन्ध, बिका करता था धडियों ।
अब दर्शन-हित लोग लगाते लाइन घड़ियों ।
कह जोशीकविराय दलित उद्धार हो गया ।
कल का पिछड़ा प्याज आज सरदार हो गया ।
प्याज सुमिरन
व्यर्थ मनुज का जन्म है नहीं मिले 'गर प्याज ।
रामराज्य को भूल कर लायं प्याज का राज ।
लायं प्याज का राज, प्याज की हो मालाएँ ।
छोड़ राष्ट्रध्वज सभी प्याज का ध्वज फहराएं ।
कह जोशीकविराय स्वाद के सब गुलाम हैं ।
सभी सुमरते प्याज, राम को राम-राम है ।
प्याज का इत्र
तीस रुपय्या प्याज है, चालीस रुपये सेव।
कैसा कलियुग आ गया हाय-हाय दुर्दैव ।
हाय-हाय दुर्दैव, हिल उठीं सब सरकारें ।
बिना प्याज के लोग जन्म अपना धिक्कारें ।
कह जोशीकविराय प्याज का इत्र बनाओ ।
इज्जत कायम रहे मूँछ पर इसे लगाओ ।
दाल में काला
दल औ' कुर्सी आपके, अपनी 'जनता-दाल'।
आप सदा खुशहाल हैं, हम हैं खस्ता-हाल ।
हम हैं खस्ता-हाल, निरर्थक डुबकी मारें ।
लेकिन दाना एक हाथ ना लगे हमारे ।
कह जोशीकविराय बहुत है गड़बड़ झाला ।
दल हो अथवा दाल हमें तो लगता काला ।
सचमुच सेक्यूलर
ऐसी-वैसी चीज अब नहीं रही है दाल ।
एक किलो 'गर चाहिए सौ का नोट निकाल ।
सौ का नोट निकाल, बिकेगी सौ से ऊपर ।
तभी देश बन पायेगा सचमुच सेक्यूलर ।
कह जोशीकविराय दाल रोटी जब पाती ।
मूरख जनता प्रभु के गुण गाने लग जाती ।
१२-१२-२००९
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
कुछ मत पूछो - कुण्डलियाँ
कुछ मत पूछो
आटा अम्बर में गया, दालें गई पताल ।
अपनी मानुस जूण का कुछ मत पूछो हाल ।
कुछ मत पूछो हाल, दिहाड़ी सारी खर्चे ।
फिर भी पूरा पेट नहीं भर पाते बच्चे ।
कह जोशीकविरय खाल सारी खिंच जाए ।
पर चूहे के चाम नगाड़ा ना बन पाये । ५-१२-२००९
नंगी का स्नान
होटल में मंत्री रुके दिन के बीस हज़ार ।
ऐसे तो मुश्किल पड़े इस भारत की पार ।
इस भारत की पार, पसीना लाख बहाए ।
तब भी संध्या तक दो सौ रुपये ना पाए ।
कह जोशीकविराय प्रणव दा पर ही छोंड़ें ।
जनता क्या स्नान करे, क्या वस्त्र निचोड़े । ५-१२-२००९
छोटी सी बात
पाँच सितारा में रुके जैसे गिर गई गाज़ ।
इक छोटी सी बात पर सब विपक्ष नाराज़ ।
सब विपक्ष नाराज़, हमारे ठाठ देखिये ।
करते सबकी सोलह दूनी आठ देखिये ।
कह जोशीकविराय आप बस पाँच सितारा ।
हम बिन छप्पर हैं सारा आकाश हमारा । ५-१२-२००९
सुरक्षा तंत्र
अमरीका को स्वयं पर है बहुत अभिमान ।
क्योंकि इकट्ठे कर रखे हैं सारे सामान ।
हैं सारे सामान, फिरे कर ऊँची कालर ।
जो भी चाहे करवा लेगा देकर डालर ।
कह जोशीकविराय हुआ क्या गज़ब इलाही ।
तोड़ सुरक्षा तंत्र भोज में घुसे 'सलाही' । ५-१२-२००९
भोजन की परवाज़
नब्बे रुपये दाल है चालीस रुपये प्याज ।
भूखे से ऊँची हुई भोजन की परवाज़ ।
भोज की परवाज़, उचक कर कूद लगाई ।
लगा न कुछ भी हाथ व्यर्थ ही टाँग तुड़ाई ।
कह जोशी कवि भूखे भजन न हो गोपाला ।
बोझा बन गई लोकतंत्र की कंठी-माला । ८-१२-२००९
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Wednesday, December 30, 2009
आपके बाप का है वतन, सेठजी
2009-12-13
आपके बाप का है वतन, सेठजी ।
लूटो जितना तुम्हारा हो मन, सेठजी ।
लोग भूखे रहें, कोई मुद्दा नहीं
कर ही लेंगे ये सब कुछ सहन, सेठजी ।
कोई मूरत लगे या बने मकबरा
खर्च हम को ही करना वहन, सेठजी ।
घास हमको न डाले कोई पंच भी
आपके साथ सारा सदन, सेठजी ।
हमको दो गज़ ज़मीं भी नहीं मिल सकी
आपके पास धरती-गगन, सेठजी ।
ठाठ ही ठाठ हैं, आप करते हैं क्या
प्रश्न ये ही है सबसे गहन, सेठजी ।
१३-१२-२००९
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लूटो जितना तुम्हारा हो मन, सेठजी ।
लोग भूखे रहें, कोई मुद्दा नहीं
कर ही लेंगे ये सब कुछ सहन, सेठजी ।
कोई मूरत लगे या बने मकबरा
खर्च हम को ही करना वहन, सेठजी ।
घास हमको न डाले कोई पंच भी
आपके साथ सारा सदन, सेठजी ।
हमको दो गज़ ज़मीं भी नहीं मिल सकी
आपके पास धरती-गगन, सेठजी ।
ठाठ ही ठाठ हैं, आप करते हैं क्या
प्रश्न ये ही है सबसे गहन, सेठजी ।
१३-१२-२००९
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Tuesday, December 8, 2009
चट्टानों से छन कर निकले
चट्टानों से छन कर निकले ।
तो जल गंगा बनकर निकले ।
जो थोड़ा सर ख़म कर निकले
वे दो अंगुल बढ़कर निकले ।
तलवारें तिरसूल गलें तो
फिर कोई हल ढलकर निकले ।
कर्मों पर विश्वास नहीं था
सो ज्यादा बन-ठन कर निकले ।
जो जितने ज्यादा ओछे थे
वे उतना ही तनकर निकले ।
वे माथे का तिलक बन गए
जो मिटटी में गलकर निकले ।
३ दिसंबर २००९
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तो जल गंगा बनकर निकले ।
जो थोड़ा सर ख़म कर निकले
वे दो अंगुल बढ़कर निकले ।
तलवारें तिरसूल गलें तो
फिर कोई हल ढलकर निकले ।
कर्मों पर विश्वास नहीं था
सो ज्यादा बन-ठन कर निकले ।
जो जितने ज्यादा ओछे थे
वे उतना ही तनकर निकले ।
वे माथे का तिलक बन गए
जो मिटटी में गलकर निकले ।
३ दिसंबर २००९
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