Wednesday, February 24, 2010

दिन बीता और शाम हो गई


दिन बीता और शाम हो गई ।
आफ़त एक तमाम हो गई ।

मै'अ कुछ यूँ दी उसने हमको
पीनी हमें हराम हो गई ।

जो ख़ुद से भी नहीं कही थी
वे सब बातें आम हो गई ।

घोड़ा जितना ज़्यादा दौड़ा
उतनी सख्त लगाम हो गई ।

'मुक्त' हुआ व्यापार इस कदर
सारी सोच गुलाम हो गई ।

जो भी दुःख-दंडकवन भटकी
वही जिंदगी राम हो गई ।

२७-७-२००९

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3 comments:

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

घोड़ा जितना ज़्यादा दौड़ा
उतनी सख्त लगाम हो गई ।

'मुक्त' हुआ व्यापार इस कदर
सारी सोच गुलाम हो गई ।

बहुत सुन्दर जोशी जी !

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर गजल!!बधाई।

Yogesh Verma Swapn said...

behatareen joshi ji.