Tuesday, December 8, 2009

चट्टानों से छन कर निकले

चट्टानों से छन कर निकले ।
तो जल गंगा बनकर निकले ।

जो थोड़ा सर ख़म कर निकले
वे दो अंगुल बढ़कर निकले ।

तलवारें तिरसूल गलें तो
फिर कोई हल ढलकर निकले ।

कर्मों पर विश्वास नहीं था
सो ज्यादा बन-ठन कर निकले ।

जो जितने ज्यादा ओछे थे
वे उतना ही तनकर निकले ।

वे माथे का तिलक बन गए
जो मिटटी में गलकर निकले ।

३ दिसंबर २००९
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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2 comments:

Yogesh Verma Swapn said...

जो जितने ज्यादा ओछे थे
वे उतना ही तनकर के निकले ।

वे माथे का तिलक बन गए
जो मिटटी में गलकर निकले

wah joshi ji bahut din baad aapki rachna padhne ka saubhagya mila, behatareen rachna hai badhaai.

Rajeysha said...

सार सार हमने पाया जब,

बारीकी से छनकर नि‍कले।


कैसी कही आदरणीय ??