Saturday, November 27, 2010
पाकर खोने का डर होता
धरती होती, अम्बर होता |
तुम होते तो घर, घर होता |
चाहे कहने को कतरा हूँ
लेकिन एक समंदर होता |
दीवारों पर गुमसुम लटकी
तस्वीरों में भी स्वर होता |
सपने सच होने का जादू
इस जीवन में अक्सर होता |
पाने का क्या जश्न मनाना
पाकर खोने का डर होता |
इंसानी रिश्ते होते फिर
भले न मस्जिद-मंदिर होता |
मैं तो उसके अंदर हूँ ही
काश! वो मेरे अंदर होता |
२२-११-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Joshi Kavi
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1 comment:
bahut achchhi hindi gzal..
har sher umda...
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