Friday, February 13, 2009

सांभर वाली झील


एड़ी नीचे कील, फील गुड ।
दे पतंग को ढील, फील गुड ॥

तेरे खातिर रात पूष की
बड़ा ले गयी चील, फील गुड ।

राणाजी के ट्रस्ट खुल गए
धक्के खाएँ भील, फील गुड ।

दिखने में ज़्यादा दिखती पर
तौलें हलकी खील, फील गुड ।

राजनीति में कहाँ मधुरता
सांभर वाली झील, फील गुड ।

५ फ़रवरी २००४

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Thursday, February 12, 2009

जनता तो रस्ते का बूँटा


राम नाम की लूट, फील गुड ।
लूट सके तो लूट, फील गुड ॥

हमें रिटायर करें साठ पर
नेतागिरी अटूट, फीलगुड ।

मुसलमान, अँगरेज़ थक गए
अपने डालें फूट, फील गुड ।

क्या पढ़ना ऎसी चिट्ठी को
फटी हुई है कूंट, फील गुड ।

जनता तो रस्ते का बूँटा
जितना चाहे चूँट, फील गुड ।

यात्री सुविधा वर्ष वहाँ है
अपनी टाँग भरूंट,फील गुड ।

१५ फरवरी २००४

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Wednesday, February 11, 2009

मचलता पारा हुआ है आदमी

वक्त का मारा हुआ है आदमी ।
तंत्र से हारा हुआ है आदमी ।

बस चुनावों के समय उनके लिए
काम का नारा हुआ है आदमी ।

वोट दें, ना दें, चुने जायेंगे वो
क्यूँ यूँ बेचारा हुआ है आदमी ।

कब से घर सर पर उठाये फिर रहा
एक बंजारा हुआ है आदमी ।

क़ैद मुट्ठी में नहीं कर पाओगे
मचलता पारा हुआ है आदमी ।

साफ़ उत्तर आपको देना पड़ेगा
प्रश्न दुबारा हुआ है आदमी ।

११ मई २००४


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Tuesday, February 10, 2009

मोम का दिल


सामने जब आइना होगा ।
मुश्किलों से सामना होगा ।

ढूँढती थी मंजिलें हमको
आपने शायद सुना होगा ।

आग का जिस में बसेरा है
मोम का वो दिल बना होगा ।

आप थोड़ी देर को हैं साथ
मन बहुत फिर अनमना होगा ।

छोड़ आए आशियाँ अपना
उम्र भर अब आसमां होगा ।

१६ अगस्त २००४

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Monday, February 9, 2009

ख़ुद ही रस्ता भूल गए हैं


मेरा साथ निभाने वाले ।
निकले दिल बहलाने वाले ॥

पहले अपनी जान बचालें
मेरी जान बचाने वाले ।

थोड़े दिन ही जम पाते हैं
केवल रंग जमाने वाले ।

अन्दर से कमजोर बहुत हैं
ऊँचे घर तहखाने वाले ।

ख़ुद ही रस्ता भूल गए हैं
मुझको राह दिखाने वाले ।

पहले ख़ुद से आँख मिलालें
मुझसे आँख मिलाने वाले ।

२३ सितम्बर २००४

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Sunday, February 8, 2009

इतिहास में सोई नदी

बात राजा को यही खलने लगी है ।
क्यों कलम तलवार सी चलने लगी है ।

एक कविता जी विवादों से घिरी थी
अब हमारे गाँव में रहने लगी है ।

सब सहा, कुछ भी न बोली आज तक
वह धरा प्रतिवाद क्यों करने लगी है ।

जो नदी इतिहास में सोई पड़ी थी
हरहराती मुल्क में बहने लगी है ।

ज़िक्र ख़ुद से भी नहीं जिसका किया
बात क्यों दुनिया वही कहने लगी है ।

रात बीती पर नहीं सूरज उगा
आखरी कंदील भी मरने लगी है ।

जो कभी दुर्गा, सरस्वती और श्री थी
आज ख़ुद की छाँव से डरने लगी है ।

अब कहो फ़रियाद की जाए कहाँ पर
बाड़ ही जब खेत को चरने लगी है ।

२८ अक्टूबर २००४

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Saturday, February 7, 2009

ग्लोबल गाँव

ठुड्डी घुटनों तक पहुँचाई ।
फिर भी छोटी पड़ी रजाई ।

हमसे इतनी दूर हुए वो
जितनी डी.ऐ. से महँगाई ।

खिड़की, दरवाजे बिन पल्ले
हवा बह रही है पछवाई ।

सुख को बहुमत ना मिल पाया
औ' दुःख ने कुर्सी हथियाई ।

रहे पास में लेकिन ऐसे
जैसे अमरीका क्यूबाई ।

दुनिया ग्लोबल गाँव हुई पर
वो ही बकरे, वही कसाई ।

२१ मार्च २०००

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Friday, February 6, 2009

उन रातों में दीप जलाओ


यूँ तो वह कमज़ोर नहीं है ।
लेकिन कोई ज़ोर नहीं है ॥

ऊँची-ऊँची उड़ें पतंगें
मगर हाथ में डोर नहीं है ।

उन रातों में दीप जलाओ
जिनकी कोई भोर नहीं है ।

वे छींकें तो हल्ला मचता
लोग मरें तो शोर नहीं है ।

उतर गए ऎसी धारा में
जिसका कोई छोर नहीं है ।

कैसा राष्ट्र बनाया देखो
दीन-दुखी को ठौर नहीं है ।

५ अप्रेल २०००

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Thursday, February 5, 2009

तुमसे बात करनी थी


दर्द होता वो या दवा होता ।
कुछ न कुछ तो मगर हुआ होता ।

पर्दादारी भी इतनी क्या कीजे
कम कम ख़ुद से तो कहा होता ।

किसी के साथ हँसते रो लेते
आदमीयत का हक अदा होता ।

सुबह तक तुमसे बात करनी थी
तू अगर शाम को मिला होता ।

ये कठिन रास्ते सहल होते
करके हिम्मत जो चल पड़ा होता ।

दिल तो पत्थर में भी धड़कता है
तूने 'गर प्यार से छुआ होता ।

३१ जुलाई २००२

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बेगाने मौसम


मन की बात न माने मौसम ।
क्यूँ इतने बेगाने मौसम ।

मीठा सपना बन कर आते
गुज़रे हुए ज़माने मौसम ।

खेतों ने अर्जी भेजी पर
करते रहे बहाने मौसम ।

जब पानी बिन फसल मर गयी
तब आए समझाने मौसम ।

दर्द किसी का कब सुनते हैं
आते दर्द सुनाने मौसम ।

देर रात दस्तक देते हैं
खौफनाक, अनजाने मौसाम ।

तहखानों में कैद हो गए
सुंदर, सुखद, सुहाने मौसम ।


२ अगस्त २००२

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Wednesday, February 4, 2009

अपना घर


सर पर है झीना सा अम्बर ।
तिस पर मौसम के ये तेवर ।

हालत पतली है, खस्ता है
उनके आश्वासन तो हैं पर ।

सारे सफ़र निरर्थक निकले
जैसी धरती, वैसा अम्बर ।

वह अलाव तो ठंडा ही था
हम बैठे थे जिसे घेर कर ।

सूरज आसपास ही होगा
मुखर हो रहे कलरव के स्वर ।

कुछ साजो-सामान नहीं है
फ़िर भी अपना घर, अपना घर ।

४ जनवरी २००३

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